Friday, December 10, 2010

अध्याय 15 - 22


अध्याय 15 - नारदीय कीर्तन पदृति, श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय, दो छिपकलियाँ ।


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पाठकों को स्मरण होगा कि छठें अध्याय के अनुसार शिरडी में राम नवमी उत्सव मनाया जाता था । यह कैसे प्रारम्भ हुआ और पहने वर्ष ही इस अवसर पर कीर्तन करने के लिये एक अच्छे हरिदास के मिलने में क्या-क्या कठिनाइयाँ हुई, इसका भी वर्णन वहाँ किया गया है । इस अध्याय में दासगणू की कीर्तन पदृति का वर्णन होगा ।


नारदीय कीर्तन पदृति

बहुधा हरिदास कीर्तन करते समय एक लम्बा अंगरखा और पूरी पोशाक पहनते है । वे सिर पर फेंटा या साफा बाँधते है और एक लम्बा कोट तथा भीतर कमीज, कन्धे पर गमछा और सदैव की भाँति एक लम्बी धोती पहनते है । एक बार गाँव में कीर्तन के लिये जाते हुए दासगणू भी उपयुक्त रीति से सज-धज कर बाबा को प्रणाम रने पहुँचे । बाबा उन्हें देखते ही कहने लगे, अच्छा । दूल्हा राजा । इस प्रकार बनठन कर कहाँ जा रहे हो । उत्तर मिला कि कीर्तन के लिये । बाबा ने पूछा कि कोट, गमछा और फेंटे इन सब की आवश्यकता ही क्या है । इनकों अभी मेरे सामने ही उतारो । इस शरीर पर इन्हें धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है । दासगणू ने तुरन्त ही वस्त्र उतार कर बाबा के श्री चरणों पर रख दिये । फिर कीर्तन करते समय दासगणू ने इन वस्त्रों को कभी नहीं पहना । वे सदैव कमर से ऊपर अंग खुले रखकर हाथ में करताल औ गले में हार पहन कर ही कीर्तन किया करते थे । यह पदृति यघपि हरिदासों द्घारा अपनाई गई पदृति के अनुरुप नहीं है, परन्तु फिर भी शुदृ तथा पवित्र हैं । कीर्तन पदृति के जन्मदाता नारद मुनि कटि से ऊपर सिर तक कोई वस्त्र धारण नहीं करते थे । वे एक हाथ में वीणा ही लेकर हरि-कीर्तन करते हुए त्रैलोक्य में घूमते थे ।


श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय

बाबा की कीर्ति पूना और अहमदनगर जिलों में फैल चुकी थी, परन्तु श्री नानासाहेब चाँदोरकर के व्यक्तिगत वार्ताँलाप तथा दासगणू के मधुर कीर्तन द्घारा बाबा की कीर्ति कोकण (बम्बई प्रांत) में भी फैल गई । इसका श्रेय केवल श्री दासगणू को ही है । भगवान् उन्हें सदैव सुखी रखे । उन्होंने अपने सुन्दर प्राकृतिक कीर्तन से बाबा को घर-घर पहुँचा दिया । श्रोताओं की रुचु प्रायः भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । किसी को हरिदासों की विदृता, किसी को भाव, किसी को गायन, तो किसी को चुटकुले तथा किसी को वेदान्त-विवेचन और किसी को उनकी मुख्य कथा रुचिकर प्रतीत होती है । परन्तु ऐसे बिरले ही है, जिनके हृदय में संत-कथा या कीर्तन सुनकर श्रद्घा और प्रेम उमड़ता हो । श्री दासगणू का कीर्तन श्रोताओं के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालता था । एक ऐसी घटना नीचे दी जाती है ।

एक समय ठाणे के श्रीकौपीनेश्वर मन्दिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे । श्रोताओं मे एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहाँ उपस्थित था । दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि हे बाबा । मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ और अपने कुटुम्ब का भरण-पोशण भी भली भाँति करने में असमर्थ हूँ । यदि मै आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बाँटूँगा । भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया । उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई । अब केवल संकल्प ही शेष रहा । शुभस्य शीघ्रम । श्री. चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था । अतः वह शिरडी यात्रा के लिये मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ । ठाणे जिले में एक कहावत प्रचलित है कि नाठे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियाँ कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परन्तु गरीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता हैं । श्री. चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने कि लिये उत्सुक था । उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया । इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारम्भ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुँचा । उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्घा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है । मेरी समस्त इच्छायें तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थी । मसजिद में श्री. चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे । जब वे दोनों वहाँ से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना । इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री. चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उनके नेत्रों से अश्रु-धाराएँ प्रवाहित होने लगी और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े । श्री. जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कुतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है बाबा का उद्देश्य तो श्री. चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था । बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भाँति परिचित है ।

बाबा का यह कथा था कि यदि तुम श्रद्घापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा । यघपि मैं शरीर से तो यहाँ हू, परन्तु मुझे सात समुद्रों के पार भी घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है । मैं तुम्हारे हृदय में विराजीत, तुम्हारे अन्तरस्थ ही हूँ । जिसका तुम्हारे तथा समस्त प्राणियों के हृददय में वास है, उसकी ही पूजा करो । धन्य और सौभाग्यशाली वही है, जो मेरे सर्वव्यापी स्वरुप से परिचित हैं । बाबा ने श्री. चोलकर को कितनी सुन्दर तथा महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान की ।


दो छिपकलियों का मिलन

अब हम दो छोटी छिपकलियों की कथा के साथ ही यह अध्याय समाप्त करेंगे । एक बार बाबा मसजिद में बैठे थे कि उसी समय एक छिपकली चिकचिक करने लगी । कौतूहलवश एक भक्त ने बाबा से पूछा कि छिपकली के चिकचिकाने का क्या कोई विशेष अर्थ है । यह शुभ है या अशुभ । बाबा ने कहा कि इस छिपकली की बहन आज औरंगाबाद से यहाँ आने वाली है । इसलिये यह प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही है । वह भक्त बाबा के शब्दों का अर्थ न समझ सका । इसलिये वह चुपचाप वहीं बैठा रहा ।

इसी समय औरंगाबाद से एक आदमी घोडे पर बाबा के दर्शनार्थ आया । वह तो आगे जाना चाहता था, परन्तु घोड़ा अधिक भूखा होने के कारण बढ़ता ही न था । तब उसने चना लाने को एक थैली निकाली और धूल झटकारने कि लिये उसे भूमि पर फटकारा तो उसमें से एक छिपकली निकली और सब के देखते-देखते ही वह दीवार पर चढ़ गई । बाबा ने प्रश्न करने वाले भक्त से ध्यानपूर्वक देखने को कहा । छिपकली तुरन्त ही गर्व से अपनी बहन के पास पहुँच गई थी । दोनों बहनें बहुत देर तक एक दूसरे से मिलीं और परस्पर चुंबन व आलिंगन कर चारों ओर घूमघूम कर प्रेमपूर्वक नाचने लगी । कहाँ शिरडी और कहाँ औरंगाबाद । किस प्रकार एक आदमी घोड़े पर सवार होकर, थैली में छिपकली को लिये हुए वहाँ पहुँचता है और बाबा को उन दो बहिनों की भेंट का पता कैसे चल जाता है-यह सब घटना बहुत आश्चर्यजनक है और बाबा की सर्वव्यापकता की घोतक है ।


शिक्षा

जो कोई इस अध्याय का ध्यानपूर्वक पठन और मनन करेगा, साईकृपा से उसके समस्त कष्ट दूर हो जायेंगे और वह पूर्ण सुखी बनकर शांति को प्राप्त होगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 16/17 - शीघ्र ब्रहृज्ञान की प्राप्ति


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इन दो अध्यायों में एक धनाढ्य ने किस प्रकार साईबाबा से शीघ्र ब्रहृज्ञान प्राप्त करना चाहा था, उसका वर्णन हैं ।


पूर्व विषय

गत अध्याय में श्री. चोलकर का अल्प संकल्प किस प्रकार पूर्णतः फलीभूत हुआ, इसका वर्णन किया गया हैं । उस कथा में श्री साईबाबा ने दर्शाया था कि प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु भी वे सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी । पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे । और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे ।

यथार्थ में देखा जाय तो सद्गगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है । उनकी तुला (समानता) समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्तामणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती । जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है।

ब्रहृज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से आये हुए एक धनाढय व्यक्ति को श्री साईबाबा ने किस प्रकार उपदेश किया, उसे अब श्रवण करें ।

एक धनी व्यक्ति (दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था । उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोडे, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थी । जब बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिये अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रहृज्ञान-प्राप्त करना चाहिये और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है । उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ब्रहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है । तुम्हारी ब्रहृज्ञान की आकांक्षा की पूर्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता ।

अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मसजिद पहुँचे । साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रहृ-दर्शन करा देते है, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ । मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ । यदि कहीं मुझे ब्रहृज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा ।

बाबा बोले, मेरे प्रिय मित्र । इतने अधीर न होओ । मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्रहृ का दर्शन करा दूँगा । मेरे सब व्यवहार तो नगद ही है और मैं उधार कभी नहीं करता । इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति के हेतु मेरे समीप आते है । ऐसा तो कोई बिरला ही आता है, जो ब्रहृज्ञान का पिपासु हो । भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ अने वाले लोगो का कोई अभाव नही, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ हैं । मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिये बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्रहृज्ञान देने के लिये जोर दे रहे है । मैं सहर्ष आपको ब्रहृ-दर्शन करा दूँगा ।

यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिये वे अपना प्रश्न भूल गये । उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपये उधार लाने को भेजा । लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है । फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहाँ भेजा । इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा । इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला ।

हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वंय सगुण ब्रहृ के अवतार थे । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी । और उस श्रण को प्राप्त करने के लिये इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया । उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी । वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है । यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था । ब्रहाजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गडडियाँ थी और यदि वे सचमुच ही ब्रहृज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते । जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिये बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते । वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर श्रण अवश्य चुकायेंगे । यघपि बाबा द्घारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका । पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्रहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिये आया हैं । यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता । परन्तु इन महाशय की दशा तो बिल्कुल ही विपरीत थी । उन्होंने न रुपये दिये और न शान्त ही बैठे, वरन वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि अरे बाबा । कृपया मुझे शीघ्र ब्रहृज्ञान दो । बाबा ने उत्तर दिया कि मेरे प्यारे मित्र । क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया । मैं तुमहें ब्रहृ-दर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था । संक्षेप में तात्पर्य यह हो कि ब्रहृ का दर्शन करने के लिये पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता हैं-

1.पाँच प्राण
2.पाँच इन्द्रयाँ
3.मन
4.बुद्घि तथा
5.अहंकार ।
यह हुआ ब्रहृज्ञान । आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना । श्री साईबाबा ने फिर इस विषय पर विस्तृत वत्तव्य दिया, जिसका सारांश यह है –




ब्रहृज्ञान या आत्मानुभूति की योग्यताएँ

सामान्य मनुष्यों को प्रायः अपने जीवन-काल में ब्रहृ के दर्णन नहीं होते । उसकी प्राप्ति के लिये कुछ योग्यताओं का भी होना नितान्त आवश्यक है ।


1. मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तीव्र उत्कणठा)

जो सोचता है कि मैं बन्धन में हूं और इस बन्धन से मुक्त होना चाहे तो इस ध्ये की प्राप्ति क लिये उत्सुकता और दृढ़ संकल्प से प्रयत्न करता रहे तथा प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहे, वही इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलने योग्य है ।


2. विरक्ति

लोक-परलोक के समस्त पदार्थों से उदासीनता का भाव । ऐहिक वस्तुएँ, लाभ और प्रतिष्ठा, जो कि कर्मजन्य हैं – जब तक इनसे उदासीनता उत्पन्न न होगी, तब तक उसे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने का अधिकार नहीं ।


3. अन्तमुर्खता

ईश्वर ने हमारी इन्द्रयों की रचना ऐसी की है कि उनकी स्वाभाविक वृत्ति सदैव बाहर की और आकृष्ट करती है । हमें सदैव बाहर का ही ध्यान रहता है, न कि अन्तर का जो आत्मदर्शन और दैविक जीवन के इच्छुक है, उन्हें अपनी दृष्टि अंतमुर्खी बनाकर अपने आप में ही होना चाहिये ।


4. पाप से शुद्घि

जब तक मनुष्य दुष्टता त्याग कर दुष्कर्म करना नहीं छोड़ता, तब तक न तो उसे पूर्ण शान्ति ही मिलती है और न मन ही स्थिर होता है । वह मात्र बुद्घि बल द्घारा ज्ञान-लाभ कदारि नहीं कर सकता ।


5. उचित आचरण

जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रहृचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं ।


6. सारवस्तु ग्रहण करना

दो प्रकार की वस्तुएँ है – नित्य और अनित्य । पहली आध्यात्मिक विषयों से संबंधित है तथा दूसरी सासारिक विषयों से । मनुष्यों को इन दोनो का सामना करना पड़ता है । उसे विवेक द्घारा किसी एक का चुनाव करना पड़ता है । विद्घान् पुरुष अनित्य से नित्य को श्रेयस्कर मानते है, परन्तु जो मूढ़मति है, वे आसक्तियों के वशीभूत होकर अनित्य को ही श्रेष्ठ जानकर उस पर आचरण करते है ।


7. मन और इन्द्रयों का निग्रह

शरीर एक रथ हैं । आत्मा उसका स्वामी तथा बुद्घि सारथी हैं । मन लगाम है और इन्द्रयाँ उसके घोड़े । इन्द्रिय-नियंत्रण ही उसका पथ है । जो अल्प बुद्घि है और जिनके मन चंचल है तथा जिनकी इन्द्रयाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों के समान है, वे अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचते तथा जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते है । परंतु जो विवेकशील है, जिन्होंने अपने मन पर नियंत्रण में है, वे ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाते है, अर्थात् उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता । जो व्यक्ति अपनी बुद्घि द्घारा मन को वश में कर लेता है, वह अन्त में अपना लक्ष्य प्राप्त कर, उस सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु के लोक में पहुँच जाता है ।


8.मन की पवित्रता

जब तक मनुष्य निष्काम कर्म नहीं करता, तब तक उसे चित्त की शुद्घि एवं आत्म-दर्शन संभव नहीं है । विशुदृ मनव में ही विवेक और वैराग्य उत्पन्न होते है, जिससे आत्म-दर्शन के पथ में प्रगति हो जाती है । अहंकारशून्य हुए बिना तृष्णा से छुटकारा पाना संभव नहीं है । विषय-वासना आत्मानुभूति के मार्ग में विशेष बाधक है । यह धारणा कि मैं शरीर हूँ, एक भ्रम है । यदि तुम्हें अपने जीवन के ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त करने की अभिलाषा है तो इस धारणा तथा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो ।


9. गुरु की आवश्यकता

आत्मज्ञान इतना गूढ़ और रहस्यमय है कि मात्र स्वप्रयत्न से उसककी प्राप्ति संभव नहीं । इस कारण आत्मानुभूति प्राप्त गुरु की सहायता परम आवश्यक है । अत्यन्त कठिन परिश्रम और कष्टों के उपरान्त भी दूसरे क्या दे सकते है, जो ऐसे गुरु की कृपा से सहज में ही प्राप्त हो सकता है । जिसने स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर अनुभव कर लिया हो, वही अपने शिष्य को भी सरलतापूर्वक पग-पग पग आध्यात्मिक उन्नति करा सकता है ।

10. अन्त में ईश-कृपा परमावश्यक है ।

जब भगवान किसी पर कृपा करते है तो वे उसे विवेक और वैराग्य देकर इस भवसागर से पार कर देते है । यह आत्मानुभूति न तो नाना प्रकार की विघाओं और बुद्घि द्घारा हो सकती है और न शुष्क वेदाध्ययन द्घारा ही । इसके लिए जिस किसी को यह आत्मा वरण करती है, उसी को प्राप्त होती है तथा उसी के सम्मुख वह अपना स्वरुप प्रकट करती है – कठोपनिषद में ऐसा ही वर्णन किया गया है ।


बाबा का उपदेश

जब यह उपदेश समाप्त हो गया तो बाबा उन महाशय से बोले कि अच्छा, महाशय । आपकी जेब में पाँच रुपये के पचास गुने रुपयों के रुप में ब्रहृ है, उसे कृपया बाहर निकालिये । उसने नोटों की गड्डी बाहर निकाली और गिनने पर सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वे दस-दस के पच्चीस नोट थे । बाबा की यह सर्वज्ञता देखकर वे महाशय द्रवित हो गये और बाबा के चरणों पर गिरकर आशर्वाद की प्रार्थना करने लगे । तब बाबा बोले कि अपना ब्रहा का (नोटों का) यह बण्डल लपेट लो । जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नही हो जाता, तबतक तुम ब्रहृ के सत्यस्वरुप को नहीं जान सकते । जिसका मन धन, सन्तान और ऐश्वर्य में लगा है, वह इन सब आसक्तियों को त्यागे बिना कैसे ब्रहृ को जानने की आशा कर सकता है । आसक्ति का भ्रम और धन की तृष्णा दुःख का एक भँवर (विवर्त) है, जिसमेंअहंकारा और ईष्र्या रुपी मगरों को वास है । जो निरिच्छ होगा, केवल वही यह भवसागर पार कर सकता है । तृष्णा और ब्रहृ के पारस्परिक संबंध इसी प्रकार के है । अतः वे परस्पर कट्टर शत्रु है ।

तुलसीदास जी कहते है –

जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।।

जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रहृ के चिन्तन या ध्यान कीगुंजाइश ही नहीं है । फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है । लालची पुरुष को न तो शान्ति है और न सन्तोष ही, और न वह दृढ़ निश्चयी ही होता है । यदि कण मात्र भी लोभ मन में शेष रह जाये तो समझना चाहिये कि सब साधनाएँ व्यर्थ हो गयी । एक उत्तम साधक यदि फलप्राप्ति की इछ्छा या अपने कर्तव्यों का प्रतिफल पाने की भावना से मुक्त नहीं है और यदि उनके प्रति उसमें अरुचि उत्पन्न न हो तो सब कुछ व्यर्थ ही हुआ । वह आत्मानुभूति प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता । जो अहंकारी तथा सदैव विषय-चिंतन में रत है, उन पर गुरु के उपदेशों तथा शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अतः मन की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं का कोई महत्व नहीं तथा वह निरादम्भ ही है । इसीलिये श्रेयस्कर यही है कि जिसे जो मार्ग बुद्घिगम्य हो, वह उसे ही अपनाये । मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है । जो कुछ मैं कह रहा हूँ, यदि तुम उसे एकाग्र होकर सुनोगे तो तुम्हें निश्चय ही लाभ होगा । इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य भाषण नहीं करता । जब घर में किसी अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है तो उसके साथ परिवार, अन्य मित्र और सम्बन्धी आदि भी भोजन करने के लिये आमंत्रित किये जाते है । बाबा द्घारा धनी महाशय को दिये गये इस ज्ञान-भोज में मसजिद में उपस्थित सभी जन सम्मलित थे । बाबा का आशीर्वाद प्राप्त कर सभी लोग उन धनी महाशय के साथ हर्ष और संतोषपूर्वक अपने-अपने घरों को लौट गये ।


बाबा का वैशिष्टय

ऐसे सन्त अनेक है, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं या झोपड़ियों में एकान्त वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते है । वे दूसरों की किंचित मात्र भी अपेक्षा न कर सदा ध्यानस्थ रहते है । श्री साईबाबा इस प्रकृति के न थे । यघपि उनके कोई घर द्घार, स्त्री और सन्तान, समीपी या दूर के संबंधी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे । वे केवल चार-पाँच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे । इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिये, इसकी भी वे शिक्षा देते थे । ऐसे साधु या सन्त प्रायः बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवत्प्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करें । श्री साईबाबा इन सब में अग्रणी थे, इसलिये हेमाडपंत कहते है-

वह देश धन्य है, वह कुटुम्ब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है, जहाँ साईबाबा के रुप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुदृ रत्न उत्पन्न हुआ ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 18/19 - श्री. हेमाडपंत पर बाबा की कृपा कैसे हुई । श्री. साठे और श्रीमती देशमुख की कथा, आनन्द प्राप्ति के लिये उत्तम विचारों को प्रोत्साहन, उपदेश में नवीमता, निंदा सम्बंधी उपदेश और परिश्रम के लिए मजदूरी ।


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ब्रहमज्ञान हेतु लालायित एक धनी व्यक्ति के साथ बाबा ने किस प्रकारा व्यवहारा किया, इसका वर्णन हेमाडपंत ने गत दो अध्यायों में किया है । अब हेमाडपंत पर किस प्रकार बाबा ने अनुग्रह कर, उत्तम विचारों को प्रोत्साहन देकर उन्हें सफलीभूत किया तथा आत्मोन्नति व परिश्रम के फ्रतिफल के सम्बन्ध में किस प्रकार उपदेश किये, इनका इन दो अध्यायों में वर्णन किया जायेगा ।


पूर्व विषय

यह विदित ही है कि सदगुरु पहले अपने शिष्य की योग्यता पर विशेष ध्यान देते है । उनके चित्त को किंचितमात्र भी डावाँडोल न कर वे उपयुक्त उपदेश देकर उन्हें आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करते है । इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का विचार है कि जो शिक्षा या उपदेश सदगुरु द्घारा प्राप्त हो, उसे अन्य लोगों में प्रसारित न करना चाहिये । उनकी ऐसी भी धारणा है कि उसे प्रकट कर देने से उसका महत्व घट जाता है । यथार्थ में यह दरृष्टिकोण संकुचित है । सदगुरु तो वर्षा ऋतु के मेघसदृश है, जो सर्वत्र एक समान बरसते है, अर्थात वे अपने अमृततुल्य उपदेशों को विस्तृत श्रेत्र में प्रसारित करते है । प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें । यह नियम जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में प्राप्त उपदेशों के लिए है । उदाहरणार्थ बुधकौशिक ऋषि ने स्वप्न में प्राप्त प्रसिदृ रामरक्षा स्तोत्र साधारण जनता के हितार्थ प्रगट कर दिया था ।

जिस प्रकार एक दयालु माता, बालक के उपचारार्थ कड़वी औषधि का बलपूर्वक प्रयोग करती है, उसी प्रकार श्री साईबाबा भी अपने भक्तों के कल्याणार्थ ही उपदेश दिया करते थे । वे अपनी पद्घति गुपत न रखकर पूर्ण स्पष्टता को ही अधिक महत्व देते थे । इसी कारण जिन भक्तों ने उनके उपदेशों का पूर्णताः पालन किया, वे अपने ध्येय की प्राप्ति में सफल हुए । श्री साईबाबा जैसे सदगुरु ही ज्ञान-चक्षुओं को खोलकर आत्मा की दिव्यता का अनुभव करा देने में समर्थ है । विषयवासनाओं से आसक्ति नष्ट कर वे भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण कर देते है, जिसके फलस्वरुप ही ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होकर, ज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नति होती रहती है । यह सब केवल उसी समय सम्भव है, जब हमें सदगुरु का सानिध्य प्राप्त हो तथा सेवा के पश्चात् हम उनके प्रेम को प्राप्त कर सकें । तभी भगतवान भी, जो भक्तकामकल्पतरु है, हमारी सहायतार्थ आ जाते है । वे हमें कष्टों और दुःखों से मुक्त कर सुखी बना देते है । यह सब प्रगति केवल सदगुरु की कृपा से ही सम्भव है, जो कि स्वयँ ईश्वर के प्रतीक है । इसीलिये हमें सदगुरु की खोज में सदैव रहना चाहिये । अब हम मुख्य विषय की ओर आते है ।


श्री साठे

एक महानुभाव का नाम श्री. साठे था । क्रापर्ड के शासनकाल में कई वर्ष पूर्व, उन्हें कुछ ख्यति प्राप्त हो चुकी थी । इस शासन का बम्बई के गवर्नर लार्ड रे ने दमन कर दिया था । श्री. साठे को व्यापार में अधिक हानि हुई और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण उन्हें बड़ा धक्का लगा । वे अत्यन्त दुःखित और निराश हो गये और अशान्त होने के कारण वे घर छोड़कर किसी एकान्त स्थान में वास करने का विचार करने लगे । बहुधा मनुष्यों को ईश्वर की स्मृति आपतत्तिकाल तथा दुर्दिनों में ही आती है और उनका विश्वास भी ईश्वर की ओर ऐसे ही समय में बढ़ जाता है । तभी वे कष्टों के निवारणार्थ उनसे प्रार्थना करने लगते है । यदि उनके पापकर्म शेष न रहे हो तो भगवान भी उनकी भेंट किसी संत से करा देते है, जो उनके कल्याँणार्थ ही उचित मार्ग का निर्देश कर देते है । ऐसा ही श्री. साठे के साथ भी हुआ । उनके एक मित्र ने उन्हें शिरडी जाने की सलाह दी, जहाँ मन की शांति प्राप्त करने और इच्छा पूर्ति के निमित्त, देश के कोने कोने से लोगों के झुंड के झुंड आते जा रहे है । उन्हें यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ और सन् 1917 में वे शिरडी गये । बाबा के सनातन, पूर्ण-ब्रहृ, स्वयं दीप्तिमान, निर्मल शान्त एवं स्थिर हो गया । उन्होंने सोचा कि गत जन्मों के संचित शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही आज मैं श्री साईबाबा के पवित्र चरणों तक परहुँचने में समर्थे हो सका हूँ । श्री. साठे दृढ़ संकल्प के व्यक्ति थे । इसलिये उन्होंने शीघ्र ही गुरुचरित्र का पारायण प्रारम्भ कर दिया । जब एक सप्ताह में ही चरित्र की प्रथम आवृत्ति समाप्त हो गई, तब बाबा ने उसी रात्रि को उन्हें एक स्वप्न दिया, जो इस प्रकार है –

बाबा अपने हाथ में चरित्र लिये हुए है और श्री. साठे को कोई विषय समझा रहे है तथा श्री. साठे सम्मुख बैठे ध्यानपूर्वक श्रवण कर रहे है । जब उनकी निद्रा भंग हुई तो स्वप्न को स्मरण कर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने विचार किया कि यह बाबा की अत्यंत कृपा हे, जो इस प्रकार अचेतनावस्था में पड़े हुओं को जागृत कर उन्हें गुरुचरित्र का अमृतपान करने का अवसर प्रदान करते है । उन्होंने यह स्वप्न श्री. काकासाहेब दीक्षित को सुनाया और श्री साईबाबा के पास प्रार्थना करने को कहा कि इसका यथार्थ अर्थ क्या है और क्या एक सप्ताह का पारायण ही मेरे लिये पर्याप्त है अथवा उसे पुनः प्रारम्भ करुँ । श्री. काकासाहेब दीक्षित ने उचित अवसर पाकर बाबा से पूछा कि हे देव । उस दृष्टांत से आपने श्री. साठे को क्या उपदेश दिया है । क्या वे पारायण सप्ताह स्थगित कर दे । वे एक सरलहृदय भक्त है । इसलिए उनकी मनोकामना आप पूर्ण करें और हे देव । कृपाकर उन्हें एक स्वप्न का यथार्थ अर्थ भी समझा दें । तब बाबा बोले कि उन्हें गुरु चरित्र का एक सप्ताह और पारायण करना उचित है । यदि वे ध्यानपूर्वक पाठ करेंगे तो उनका चित्त शुदृ हो जायेगा और घीघ्र ही कल्याँ होगा । ईश्वर भी प्रसन्न होकर उन्हें भव-बन्धन से मुक्त कर देंगे । इस अवसर पर श्री. हेमाडपंत भी वहाँ उपस्थित थे और बाबा के चरणकमलों की सेवा कर रह थे । बाबा के वचन सुनकर उन्हें विचार आया कि साठे को केवल सप्ताह के पारायण से ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई, जब कि मैं गत 40 बर्षों से गुरुचरित्र का रारायण कर रहा हूँ, जिसका कोई परिणाम अब तक न निकला । उनका केवल सात दिनों तक शिरडी निवास ही सफल हुआ और मेरा गत सात वर्ष का (1910-17) सहवास क्या व्यर्थ हो गया । चातक पक्षी के समान मैं सदा उसकृपाघन की रहा देखा करता हूँ, जो मेरे ऊपर मस्तिष्क में आया ही था कि बाबा को सब ज्ञात हो गया । ऐसा भक्तों ने सदैव ही अनुभव किया है कि उनके समस्त विचारों को जानकर बाबा तुरन्त कुविचारों का दमन कर उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते थे । हेमाडपंत का ऐसा विचार जानकर बाबा ने तुरन्त ही आज्ञा दी कि शामा के यहाँ जाओ और कुछ समय उनसे वार्तालाप कर, 15 रु. दक्षिणा ले आओ । बाबा को दया आ गई थी । इसी कारण उन्होंने ऐसी आज्ञा दी । उनकी अवज्ञा करने का साहस भी किसे था । श्री. हेमाडपंत शीघ्र शामा के घर पहुँचे । इस समय पर शामा स्नान कर धोती पहन रहे थे । उन्होंने बाहर आकर हेमाडपंत से पूछा कि आप यहाँ कैसे । जान पड़ता है कि आप मसजिद से ही आ रहे है तथा आप ऐसे व्यथित और उदास क्यों है आप अकेले ही क्यों आये है । आइये, बैठिये, और थोड़ा विश्राम तो करिये । जब तक मैं पूजनादि से भी निवृत्त हो जाऊँ, तब तक आप कृपा कर के पान आदि ले । इसके पश्चात् ही हम और आप सुखपूर्वक वार्तालाप करें । ऐसा कहकर वे भीतक चले गए । दालान में बैठे-बैठे हेमाडपंत की दरृष्टि अचानक खिड़की पर रखी नाथ भागवत पर पड़ी । नाथ भागवत श्री एकनाथ द्घारा रचित महाभारत के 11 वें स्कन्ध पर मराठी भाषा में की हुई एक टीका है । श्री साईबाबा की आज्ञानुसार श्री. बापूसाहेब जोग और श्र. काकासाहेब दीक्षित शिरडी में नित्य भगवदगीता का मराठी टीकासहित, जिसका नाम भावार्थए दीपिका या ज्ञानेश्वरी है (कृष्ण और भक्त अर्जुन संवाद), नाथ भागवत (श्रीकृष्ण उद्घव संवाद) और एकनाथ का महान् ग्रन्थ भावा्र्थ रामायण का पठन किया करते थे । जब भक्तगण बाबा से कोई प्रश्न पूछने आते तो वे कभी आंशिक उत्तर देते और कभी उनको उपयुक्त भागवत तथा प्रमुख ग्रंथों का श्रवण करने को कहते थे, जिन्हें सुनने पर भक्तों को अपने प्रश्नों के पूर्णतया संतोषप्रद उत्तर प्राप्त हो जाते थे । श्री. हेमाडपंत भी नित्य प्रति नाथ भागवत के कुछ अंशों का पाठ किया करते थे ।

आज प्रातः मसजिद को जाते समय कुछ भक्तों के सत्संग के कारण उन्होंने अपना नित्य नियमानुसार पाठ अधूरा ही छोड़ दिया था । उन्होंने जैसे ही वह ग्रन्थ उठाकर खोला तो अपने अपूर्ण भाग का पृष्ठ सामने देखकर उनको आश्चर्य हुआ । उन्होंने सोचा कि बाबा ने इसी कारण ही मुझे यहाँ भेजा है, ताकि मैं अपना शेष पाठ पूरा कर लूँ और उन्होंने शेष अंश का पाठ आरम्भ कर दिया । पाठ पूर्ण होते ही शामा भी बाहर आये और उन दोनों में वार्तालाप होने लगा । हेमाडपंत ने कहा कि मैं बाबा का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूँ । उन्होंने मुझे आपसे 15 रु. दक्षिणा लाने तथा थोड़ी देर वार्तालाप कर आपको अपने साथ लेकर मसजिद वापस आने की आज्ञा दी है । शामा आश्चर्य से बोले मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है । इसलिये आप रुपयों के बदले दक्षिणा मे मेरे 15 नमस्कार ही ले आओ । तब हेमाडपंत ने कहा कि ठीक है, मुझे आपके 15 नमस्कार ही स्वीकार है । आइये, अब हम कुछ वार्तालाप करें और कृपा कर बाबा की कुछ लीलाएँ आप मुझे सुनाय, जिससे पाप नष्ट हो । शामा बोले, तो कुछ देर बैठो । इस ईश्वर (बाबा) की लीला अदभुत है । कहाँ मैं एक अशिक्षित देहाती और कहाँ आप एक विद्घान्, यहाँ आने के पश्चात् तो आप बाबा की अनेक लीलाएँ स्वयं देख ही चुके है, जिनका अब मैं आपके समक्ष कैसे वर्णन कर सकता हूँ । अच्छा, यह पान-सुपारी तो खाओ, तब तक मैं कपड़े पहिन लूँ ।

थोडी देर में शामा बाहर आये और फिर उन दोनों में इस प्रकार वार्तालाप होने गला ः-

शामा बोले – इस परमेश्वर (बाबा) की लीलायें आगाध है, जिसका कोई पार नहीं । वे तो लीलाओं से अलिप्त रहकर सदैव विनोद किया करते है । इसे हम अज्ञानी जीव क्या समझ सकें । बाबा स्वयं ही क्यों नही कहते । आप सरीखे विद्घान को मुझ जैसे मूर्ख के पास क्यों भेजा हैं । उनकी कार्यप्रणाली ही कल्पना के परे है । मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि वे लौकिक नहीं है । इस भूमिका के साथ ही साथ शामा ने कहा कि अब मुझे एक कथा की स्मृति हो आई है, जिसे मैं व्यक्तिगत रुप से जानता हूँ । जैसी भक्त की निष्ठा और भाव होता हे, बाबा भी उसी प्रकार उनको सहायता करते है । कभी कभी तो बाबा भक्त की कठिन परीक्षा लेकर ही उसे उपदेश दिया करते हैं । उपदेश शब्द सुनकर साठे के गुरुचरित्र-पारायण की घटना का तत्काल ही स्मरण करके हेमाडपंत को रोमांच हो आया । उन्होंने सोचा, कदाचित् बाबा ने मेरे चित्त की चंचलता नष्ट करने के लिये ही मुझे यहाँ भेजा है । फिर भी वे अपने विचार प्रकट न कर, शामा की कथा को ध्यानपूर्वक सुनने लगे । उन सब कथाओं का सार केवल यही था कि अपने भक्तों के प्रति बाबा के मन में कितनी दया और स्नेह है । इन कथाओं को श्रवण कर हेमाडपंत को आंतरिक उल्लास का अनुभव होने लगा । तब शामा ने नीचे लिखी कथा कही –


श्री मती राधाबाई देशमुख

एक समय एक वृद्घा, श्री मती राधाबाई, जो खाशाबा देशमुख की माँ थी, बाबा की कीर्ति सुनकर संगमनेर के लोगों के साथ शिरडी आई । बाबा के श्री दर्शन कर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई । श्री साई चरणों में उनकी अटल श्रद्घा थी । इसलिये उन्होंने यह निश्चय किया कि जैसे भी हो, बाबा को अपना गुरु बना, उनसे उपदेश ग्रहण किया जाय ।

आमरण अनशन का दृढ़ निश्चय कर अपने विश्राम गृह में आकर उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । मैं इस वृद्घा की अग्निपरीक्षा से बिल्कुल भयभीत हो गया और बाबा से प्रार्थना करने लगा कि देव । आपने अब यह क्या करना आरम्भ कर दिया है । ऐसे कितने लोगों को आप यहाँ आकर्षित किया करते है । आप उस वृद्घ महिला से पूर्ण परिचित ही है, जो हठपूर्वक आप पर अवलम्बित है । यदि आपने कृपादृष्टि कर उसे उपदेश न दिया और यदि दुर्भाग्यवश उसे कुछ हो गया तो लोग व्यर्थ ही आपको दोषी ठहरायेंगे और कहेंगे कि बाबा से उपदेश प्राप्त न होने की वजह से ही उसकी मृत्यु हो गई है । इसलिये अब दया कर उसे आशीष और उपदेश दीजिये । वृद्घा का ऐसा दृढ़ निश्चय देख कर बाबा ने उसे अपने पास बुलाया और मधुर उपदेश देकर उसकी मनोवृत्ति परिवर्तित कर कहा कि ह माता । क्यों व्यर्थ ही तुम यातना सहकर मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो । तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा । तुम मुझ पर दया करो और जो कुछ मैं कहूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो । मैं अपनी स्वयं की कथा तुमसे कहता हूँ और यदि तुम उसे ध्यानपूर्वक श्रवण करोगी तो तुम्हें अवश्य परम शान्ति प्राप्त होगी । मेरे एक गुरु, जो बड़े सिदृ पुरुष थे, मुझ पर बड़े दयालु थे । दीर्घ काल तक मैं उनकी सेवा करता रहा, फिर भी उन्होंने मेरे कानों में कोई मंत्र न फूँका । मैं उनसे कभी अलगाना भी नहीं चाहता था । मेरी प्रबल उत्कंठा थी कि उनकी सेवा कर जिस प्रकार भी सम्भव हो, मंत्र प्राप्त करुँ । परन्तु उनकी रीति तो न्यारी ही थी । उन्होंने पहले मेरा मुंडन कर मुझसे दो पैसे दक्षिणा में माँगे, जो मैंने तुरन्त ही दे दिये । यदि तुम प्रश्न करो कि मेरे गुरु जब पूर्णकाम थे तो उन्हें पैसे माँगना क्या शोभनीय था । और फिर उन्हें विरक्त भी कैसे कहा जा सकता था । इसका उत्तर केवल यह है कि वे कांचन को ठुकराया करते थे, क्योंकि उन्हें उसकी स्वप्न में भी आवश्यकता न थी । उन दो पैसों का अर्थ था –

1.दृढ़ निष्ठा और
2.धैर्य ।
जब मैंने ये दोनों वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । मैंने बारह वर्ष उनके श्री चरणों की सेवा में ही व्यतीत किये । उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया । अतः मुझे भोजन और वस्त्रों का कोई अभाव न था । वे प्रेम की मूर्ति थे अथवा यों कहो कि वे प्रेम के साक्षात् अवतार थे । मैं उनका वर्णन ही कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि उनका तो मुझ पर अधिक स्नेह था और उनके समान गुरु कोई बिरला ही मिलेगा । जब मैं उनकी ओर निहारता तो मुझे प्रतीत होता कि वे गम्भीर मुद्रा में ध्यानमग्न है और तब हम दोनों आनंददित हो जाते थे । आठों प्रहर मैं एक टक उनके ही श्रीमुख की ओर निहारा करता था । मैं भूख और प्यास की सुध-बुध खो बैठा । उनके दर्शनों के बिना मैं अशान्त हो उठता था । गुरु सेवा की चिन्ता के अतिरिक्त मेरे लिये कोई और चिन्तनीय विषय या पदार्थ न था । मुझे तो सदैव उन्हीं का ध्यान रहता था । अतः मेरा मन उनके चरण-कमलों में मग्न हो गया । यह हुई एक पैसे की दक्षिणा । धैर्य है दूसरा पैसा । मैं धैर्यपूर्वक बहुत काल तक प्रतीक्षा कर गुरुसेवा करता रहा । यही धैर्य तुम्हें भी भवसागर से पार उतार देगा । धैर्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व है । धैर्य धारण करने से समस्त पाप और मोह नष्ट होकर उनके हर प्रकार के संकट दूर होते तथा भय जाता रहता है । इसी प्रकार तुम्हें भी अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । धैर्य तो गुणों की खान व उत्तम विचारों की जननी है । निष्ठा और धैर्य दो जुड़रवाँ बहिनों के समान ही है, जिनमें परस्पर प्रगाढ़ प्रेम है ।

मेरे गुरु मुझसे किसी वस्तु की आकांक्षा न रखते थे । उन्होंने कभी मेरी उपेक्षा न की, वरन् सदैव रक्षा करते रहे । यघपि मैं सदैव उनके चरणों के समीप ही रहता था, फिर भी कभी किन्हीं अन्य स्थानों पर यदि चला जाता तो भी मेरे प्रेम में कभी कमी न हुई । वे सदा मुझ पर कृपा दृष्टि रखते थे । जिस प्रकार कछुवी प्रेमदृष्टि से अपने बच्चों का पालन करती है, चाहे वे उसके समीप हों अथवा नदी के उस पार । सो हे माँ । मेरे गुरु ने तो मुझे कोई मंत्र सिखाया ही नही, तब मैं तुम्हारे कान में कैसे कोई मंत्र फूँकूँ । केवल इतना ही ध्यान रखो कि गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है । इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो । मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी । मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा । इस मसजिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है । पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु की कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है ।

इस प्रकार समझाने से वृदृ महिला को सान्तवना मिली और उसने बाबा को नमन कर अपना उपवास त्याग दिया । यह कथा ध्यानपूर्वक एकाग्रता से श्रवण कर तथा उसके उपयुक्त अर्थ पर विचार कर हेमाडपंत को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनका कंठ रुँध गया और वे मुख से एक शब्द भी न बोल सके । उनकी ऐसी स्थति देख शामा ने पूछा कि आप ऐसे स्तब्ध क्यों हो गये । बात क्या है । बाबा की तो इस प्रकार की लीलायें अगणित है, जिनका वर्णन मैं किस मुख से करुँ ।

ठीक उसी समय मसजिद में घण्टानाद होने लगा, जो कि मध्याहृ पूजन तथा आरती के आरम्भ का घोतक था । तब शामा और हेमाडपंत भी शीघ्र ही मसजिद की ओर चले । बापूसाहेब जोग ने पूजन आरम्भ कर दिया था, स्त्रियां मसजिद में ऊपर खड़ी थीं और पुरुष वर्ग नीचे मंडप में । सब उच्च स्वर में वाघों के साथ-साथ आरती गा रहे थे । तभी हेमाडपंत का हाथ पकड़े हुए शामा भी ऊपर पहुँचे और वे बाबा के दाहिनी ओर तथा हेमाडपंत बाबा के सामने बैठ गये । उन्हें देख बाबा ने शामा से लाई हुई दक्षिणा देने के लिये कहा । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि रुपयों के बदले शामा ने मेरे द्घारा आपको पन्द्रह नमस्कार भेजे है तथा स्वयं ही यहाँ आकर उपस्थित हो गये है । बाबा ने कहा, अच्छा, ठीक है । तो अब मुझे यह बताओ कि तुम दोनों में आपस में किस बिषय पर वार्तालाप हुआ था । तब घंटे, ढोल और सामूहिक गान की ध्वनि की चिंता की चिंता करते हुए हेमाडपंत उत्कंठापूर्वक उन्हें वह वार्तालाप सुनाने लगे । बाबा भी सुनने को अति उत्सुक थे । इसलिये वे तकिया छोड़कर थोड़ा आगे झुक गये । हेमाडपंत ने कहा कि वार्ता अति सुखदायी थी, विशेषकर उस वृदृ महिला की कथा तो ऐसी अदभुत थी कि जिसे श्रवण कर मुझे तुरन्त ही विचार आया कि आपकी लीलाएँ अगाध है और इस कथा की ही ओट में आपने मुझ पर विशेष कृपा की है । तब बाबा ने कहा, वह तो बहुत ही आश्चर्यपूर्ण है । अब मेरी तुम पर कृपा कैसे हुई, इसका पूर्ण विवरण सुनाओ । कुछ काल पूर्व सुना वार्तालाप जो उनके हृदय पटल पर अंकित हो चुका था, वह सब उन्होने बाबा को सुना दिया । वार्ता सुनकर बाबा अति प्रसन्न हो कहने लगे कि क्या कथा से प्रभावित होकर उसका अर्थ भी तुम्हारी समझ में आया है । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि हाँ, बाबा, आया तो है । उससे मेरे चित्त की चंचलता नष्ट हो गई है । अब यथा्रथ में मैं वास्तविक शांति और सुख का अनुभव कर रहा हूँ तथा मुझे सत्य मार्ग का पता चल गया है । तब बाबा बोले, सुनो, मेरी पद्घति भी अद्घितीय है । यदि इस कथा का स्मरण रखोगे तो यह बहुत ही उपयोगी सिदृ होगी । आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये ध्यान अत्यंत आवश्यक है और यदि तुम इसका निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो कुप्रवृत्तियाँ शांत हो जायेंगी । तुम्हें आसक्ति रहित होकर सदैव ईश्वर का ध्यान करना चाहहिये, जो सर्व प्राणियों में व्याप्त है और जब इस प्रकार मन एकाग्र हो जायेगा तो तुम्हें ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । मेरे निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का ध्यान करो । यदि तुम ऐसा करने में अपने को असमर्थ मानो तो मेरे साकार रुप का ही ध्यान करो, जैसा कि तुम मुझे दिन-रात यहाँ देखते हो । इस प्रकार तुम्हारी वृत्तियाँ केन्द्रित हो जायेंगी तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय का पृथकत्व नष्ट होकर, ध्याता चैतन्य से एकत्व को प्राप्त कर ब्रहृ के साथ अभिन्न हो जायेगा । कछुवी नदी के इस किनारे पर रहती है और उसके बच्चे दूसरे किनारे पर । न वह उन्हें दूध पिलाती है और न हृदय से ही लगाकर लेती है, वरन् केवल उसकी प्रेम-दृष्टि से ही उनका भरण-पोषण हो जाता है । छोटे बच्चे भी कुछ न करके केवल अपनी माँ का ही स्मरण करते रहते है । उन छोटे-छोटे बच्चों पर कछुवी की केवल दृष्टि ही उन्हें अमृततुल्य आहार और आनन्द प्रदान करती है । ऐसी ही गुरु और शिष्य का भी सम्बन्ध है । बाबा ने ये अंतिम शब्द कहे ही थे कि आरती समाप्त हो गई और सबने उचच स्वर से – श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय बोली । प्रिय पाठको । कल्पना करो कि हम सब भी इस समय उसी भीड़ और जयजयकार में सम्मिलित है ।

आरती समाप्त होने परप्रसाद वितरण हुआ । बापूसाहेब जोग हमेशा की तरह आगे बढ़े और बाबा को नमस्कार कर कुछ मिश्री का प्रसाद दिया । यह मिश्री हेमाडपंत को देकर वे बोले कि यदि तुम इस कथा को अच्छी तरहसे सदैव स्मरण रखोगे तो तुम्हारी भी स्थिति इस मिश्री के समान मधुर होकर समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और तुम सुखी हो जाओगे । हेमाडपंत ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और स्तुति की कि प्रभो इसी प्रकार दया कर सदैव मेरी रक्षा करते रहो । तब बाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि इन कथाओं को श्रवण कर, नित्य मनन तथा निदिध्यासन कर, सारे तत्व को ग्रहण करो, तब तुम्हें ईश्वर का सदा स्मरण तथा ध्यान बना रहेगा और वह स्वयं तुम्हारे समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट कर देगा । प्यारे पाठको । हेमाडपंत को उस समया मिश्री का प्रसाद भली भाँति मिला, जो आज हमें इस कथामृत के पान करने का अवसर प्राप्त हुआ । आओ, हम भी उस कथा का मनन करें तथा उसका सारग्रहण कर बाबा की कृपा से स्वस्थ और सुखी हो जाये ।

19वे अध्याय के अन्त में हेमाडपंत ने कुछ और भी विषयों का वर्णन किया है, जो यहाँ दिये जाते है ।


अपने बर्ताव के सम्बन्ध में बाबा का उपदेश

नीचे दिये हुए अमूल्य वचन सर्वसाधारण भक्तों के लिये है और यदि उन्हें ध्यान में रखकर आचरण में लाया गया तो सदैव ही कल्याण होगा । जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता । यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ । उसका स्वागत कर आदरपूर्वक बर्ताव करो । यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह प्रसन्न होंगे । यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो । तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर क्रोध न करो । यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित ही है कि तुम सुखी रहोगे । संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें स्थिर रहना चाहिये । सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दरृरश्य को शान्तिपूर्वक देखो । एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्घैत) की दीवार नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये । द्घैत भाव (अर्थात मैं और तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है । इसलिये जब तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं । अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई संरक्षणकर्ता नहीं है । उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोन और कल्पना से परे है । उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है । वे ही मार्ग-प्रददर्शन कर सभी इच्छाएँ पूर्ण करते है । ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलनये हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये । जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य औ सुखी है । दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं ।


उत्तम विचारों को प्रोत्साहन

यह ध्यान देने योग्य बात है कि श्री साईबाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहन दिया करते थे । इसलिये यदि हम प्रेम और भक्तिपू्रवक अनन्य भाव से उनकी शरण जायें तो हमें अनुभव हो जायेगा कि वे अनेक अवसरों पर हमें किस प्रकार सहायता पहुँचाते है । किसी सन्त का कथन है कि यदि प्रातःकाल तुम्हारे हृदय में कोई उत्तम विचार उत्पन्न हो और यदि तुम उसकी पुष्टि दिनभर करो तो वह तुम्हारा विवेक अत्यन्त विकसित और चित्त प्रसन्न कर देगा । हेमाडपंत भी इसका अनुभव करना चाहते थे । इसलिये इस पवित्र शिरडी भूमि पर अगले शुभ गुरुवार के समूचे दिन नामस्मरण और कीर्तन में ही व्यतीत करुँ, ऐसा विचार कर वे सो रहे । दूसरे दिन प्रातःकाल उठने पर उन्हं सहज ही राम-नाम का स्मरण हो आया, जिससे वे प्रसन्न हुए और नित्य कर्म समाप्त कर कुछ पुष्प लेकर बाबा के दर्शन करने को गये । जब वे दीक्षित का वाड़ा पार कर बूटी-वाड़े के समीप से जा रहे थे तो उन्हें एक मधुर भजन की ध्वनि, जो मसजिद की ओर से आ रही थी, सुनाई पडी । यह एकनाथ का रोचक भजन औरंगाबादकर मधुर लयपूर्वक बाबा के समक्ष गा रहे थे ।

गुरुकृपांजन पायो मेरे भाई । राम बिना कुछ मानत नाही ।। धु. ।।

अन्दर रामा बाहर रामा । सपने में देखत सीतारामा ।। 1 ।। गुरु. ।।

जागत रामा सोवत रामा । जहाँ देखे वहीं पूरन कामा ।। 2 ।। गुरु. ।।

एका जनार्दनी अनुभव नीका । जहाँ देखे वहाँ रामसरीखा ।। 3 ।। गुरु. ।।

भजन अनेकों है, परन्तु विशेषकर यह भजन ही क्यों औरंगाबादकर ने चुना । क्या यह बाबा द्घारा ही संयोजित विचित्र अनुरुपता नहीं है । और क्या यह हेमाडपंत के गत दिन अखंड रामनाम स्मरण के संकल्प को प्रोत्साहन नहीं है । सभी संतों का इस सम्बन्ध में एक ही मत है और सभी रामनाम के जप को प्रभावकारी तथा भक्तों की इच्छापूर्ति और सभी कष्टों से छुटकारा पाने के लिये इसे एक अमोघ इलाज बतलाते है।


निन्दा सम्बन्धी उपदेश

उपदेश देने के लिये किसी विशेष समय या स्थान की प्रतीक्षा न कर बाबा यथायोग्य समय पर ही स्वतन्त्रतापूर्वक उपदेश दिया करते थे । एक बार एक भक्त ने बाबा की अनुपस्थिति में दूसरे लोगों के सम्मुख किसी को अपशब्द कहे । गुणों की उपेक्षा कर उसने अपने भाई के दोषारोपण में इतने बुरे से कटु वाक्यों का प्रयोग किया कि सुनने वालों को भी उसके प्रति घृणा होने लगी । बहुधा देखने में आता है कि लोग व्यर्थ ही दूसरों की निंदा कर झगड़ा और बुराइयाँ उत्पन्न करते है । संत तो परदोषों को दूसरी ही दृष्टि से देखा करते है । उनका कथन है कि शुद्घि के लिये अनेक विधियों में मिट्टी, जल और साबुन पयार्प्त है, परन्तु निंदा करने वालों की युक्ति भिन्न ही होती है । वे दूसरों के दोषों को केवल अपनी जिहृा से ही दूर करते है और इस प्रकार वे दूसरों की निंदा कर उनका उपकार ही किया करते है, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है । निंदक को उचित मार्ग पर लाने के लिये साईबाबा की पदृति सर्वथा ही भिन्न थी । वे तो सर्वज्ञ थे ही, इसलिये उस निंदक के कार्य को वे समझ गये । मध्याहृकाल में जब लेण्डी के समीप उससे भेंट हुई, तब उन्होंने विष्ठा खाते हुए एक सुअर की ओर उँगली उठाकर उससे कहा कि देखो, वह कितने प्रेमपूर्वक विष्ठा खा रहा है । तुम भी जी भर कर अपने भाइयों को सदा अपशब्द कहा करते हो और यह तुम्हारा आचरण भी ठीक उसी के सदृश ही है । अनेक शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही तुम्हें मानव-तन प्राप्त हुआ और इसलिये यदि तुमने इसी प्रकार आचरण किया तो शिरडी तुम्हारी सहायता ही क्या कर सकेगी । कहने का तात्पर्य केवल यह है कि भक्त ने उपदेश ग्रहण कर लिया और वह वहाँ से चला गया । इस प्रकार प्रसंगानुसार ही वे उपदेश दिया करते थे । यदि उन पर ध्यान देकर नित्य उनका पालन किया जाय तो आध्यात्मिक ध्येय अधिक दूर न होगा । एक कहावत प्रचनित है कि – यदि मेरा श्रीहरि होगा तो वह मुझे चारपाई पर बैठे-बैठे ही भोजन पहुँचायेगा । यह कहावत भोजन और वस्त्र के विषय में सत्य प्रतीत हो सकती है, परन्तु यदि कोई इस पर विश्वास कर आलस्यवशबैठा रहे तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कुछ भी प्रगति न कर उलटे पतन के घोर अंधकार में मग्न हो जायेगा । इसलिये आत्मानुभूति प्राप्ति के लिये प्र्तेक को अनवरत परिश्रम करना चाहिये और जितना प्रयत्न वह करेगा, उतना ही उसके लिए लाभप्रद भी हो । बाबा ने कहा कि मैं तो सर्वव्यापी हूँ और विश्व के समस्त भूतों तथा चराचर में व्याप्त रहकर भी अनंत हूँ । केवल उनके भ्रम-निवारणार्थ ही जिनकी दृष्टि में वे साढ़े तीन हाथ के मानव थे, स्वयं सगुण रुप धारण कर अवतीर्ण हुए । इसलिये जो भक्त अनन्य भाव से उनकी शरण आये और जिन्होंने दिन-रात ही उनका ध्यान किया, उन्हें उनसे अभिन्नता प्राप्त हुई, जिस प्रकार कि माधुर्य और मिश्री, लहर और सममुद्र तथा नेत्र और कांति में अभिन्नता हुआ करती है । जो आवागमन के चक्र से मुक्त होना चाहे, वे शांत और स्थिर होकर अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें । दुःखदायी कटु शब्दों के प्रयोग से किसी को दुःखित न कर सदैव उत्तम कार्यों में संलग्न रहकर अपना कर्तव्य करते हुए अनन्य भाव से भयरहित हो उनकी शरण में जाना चाहिये । जो पूर्ण विश्वास से उनकी लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करेगा तथा अन्य वस्तुओं की चिंता त्याग देगा, उसे निस्संदेह ही आत्मानुभूति की प्राप्ति होगी । उन्होंने अनेकों से नाम का जपकर अपनी शरण में आने को कहा । जो यह जानने को उत्सुक थे कि मैं कौन हूँ । बाबा ने उन्हें भी लीलायें श्रवण और मनन करने का परामर्श दिया । किसी को भगवत् लीलाओं का श्रवण, किसी को भगवत्पादपूजन तो किसी को अध्यात्मरामायण व ज्ञानेश्वरी तथा धार्मिक ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करने को कहा । अनेकों को अपने चरणों के समीप ही रखकर बहुतों को खंडोबा के मन्दिर में भेजा तथा अनेकों को विष्णु सहस्त्रनाम का जप करने व छान्दोग्य उपनिषद तथा गीता का अध्ययन करने को कहा । उनके उपदेशों की कोई सीमा न थी । उन्होंने किन्हीं को प्रत्यक्ष और बहुतों को स्वप्न में दृष्टांत दिये । एक बार वे एक मदिरा-सेवी के स्वप्न में प्रगट होकर उसकी छाती पर चढ़ गये और जब उसने मघपान त्यागने की शपथ खाई, तभी उसे छोड़ा । किसी-किसी को मंत्र जैसे गुरुब्रर्हा अदि का अर्थ स्वप्न में समझाया तथा कुछ हठयोगियों को हठयोग छोड़ने की राय देकर चुपचाप बैठ धैर्य रखने को कहा । उनके सुगम पथ और विधि का वर्णन ही असम्भव है । साधारण सांसारिक व्यवहारों में उन्होंने अपने आचरण द्घारा ऐसे अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये, जिनमें से एक यहाँ नीचे दिया जाता है ।


परिश्रम के लिये मजदूरी

एक दिन बाबा ने राधाकृष्णमाई के घर के समीप आकर एक सीढ़ी लाने को कहा । तब एक भक्त सीढ़ी ले आया और उनके बतलाये अनुसार वामन गोंदकर के घर पर उसे लगाया । वे उनके घर पर चढ़ गये और राधाकृष्णमाई के छप्पर पर से होकर दूसरे छोर से नीचे उतर आये । इसका अर्थ किसी की समझ में न आया । राधाकृष्णमाई इस समय ज्वर से काँप रही थी । इसलिये हो सकता है कि उनका ज्वर दूर करने के लिये ही उन्होंने ऐसा कार्य किया हो । नीचे उतरने के पश्चात् शीघ्र ही उन्होंने सीढ़ी लाने वाले को दो रु. पारिश्रमिक स्वरुप दिये । तब एक ने साहस कर उनसे पूछा कि इतने अधिक पैसे देना क्या अर्थ रखता है । उन्होंने कहा कि किसी से बिना परिश्रम का मूल्य चुकाये कार्य न कराना चाहिये और कार्य करनेवाले को उसके श्रम का शीघ्र निपटारा कर उदार हृदय से मजदूरी देनी चाहिये । यदि बाबा के इस नियम का पालन किया जाये अर्थात् मजदूरी का भुगतान शीघ्र और मजदूरों के लिये सन्तोषप्रद हो तो वे अधिक उत्तम कार्य करेंगे, लगन से कार्य करेंगें । फिर कार्य छोड़ने एवं हड़तालों की कोई समस्या ही नहीं रह जायेगी और न ही मालिक और मजदूरों में वैमनस्य पैदा होगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 20 - विलक्षण समाधान. श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री. दासगणू की समस्या का समाधान ।


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श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है ।


प्रारम्भ

श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साककार रुप में प्रगट हुए । माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया । आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्याहृ की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें । जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मसजिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की । भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे । बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे । बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था । वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, ओ भाऊ । अब जाओ, भोजन करो । इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे । आह । क्या थे वे दिन, जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें । यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो । अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता, प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है ।


ईशोपनिषद्

एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया । वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है । इसमें बैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यदुः) संहितोशनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है । वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठकर माना जाता है, जो कि ब्राहमण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है । इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवन ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है । पण्डित सातवलेकर द्घारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है ।

प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है । इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्घान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्त्व्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है ।

इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है । श्री. दासगणू ने ओवी छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार त्तत्व को ग्रतहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ । इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्घानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी अधिक किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक अर्थ करने में कोई भी सफल न हो सका । इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए ।


केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ

यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है । इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है । अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है । जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उलके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की । श्री साईबाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उसमें कठिनाई ही क्या है । जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी । उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है । परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रहमवाक्य ही है ।


काका की नौकरानी

बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे । दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा । गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी । वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितनी सुन्दर थी, इत्यादि । उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ । इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है । बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी । इतनी दरिद्री-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की । जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा । दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर सानन्द नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही । अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी । यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई । उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही । उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा । इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है । इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ ददिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखननी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर मेंव्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी । इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके पटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर दद्घारा ही प्रेरित कार्य था । श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए । सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है ।


अद्घितीय शिक्षापद्घति

उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्घितीय और अपूर्व थी । बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा । किसी को दिन में ौर किसी को रात्रि में दर्शन दिये । किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये ओर उनकी इच्छाएँ पूर्ण की । भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है । इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्घारा समस्या हल कराई । जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे । उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया । अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्घारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी ।


ईशोपनिषद् की शिक्षा

ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है । हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें बृहत् रुप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है । यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्घान्त है और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है । यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये । सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है । चरित्र सम्बन्धी द्घितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मोंको जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है । इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मणमयता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है । अन्त में कहा है कि जो सब प्राषियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है । ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता ।

सर्व भूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के काण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्घि होती है । जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करने लगता है ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 21 - श्री. व्ही. एच. ठाकुर, अनंतराव पाटणकर और पंढ़रपुर के वकील की कथाएँ


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इस अध्याय में हेमाडपंत ने श्री विनायक हिश्चन्द्र ठाकुर, बी. ए., श्री. अनंतराव पाटणकर, पुणे निवासी तथा पंढरपुर के एक वकील की कथाओं का वर्णन किया है । ये सब कथाएँ अति मनोरंजक है । यदि इनका साराँश मननपूर्वक ग्रहण कर उन्हें आचरण में लाया जाय तो आध्यात्मिक पंथ पर पाठकगण अवश्य अग्रसर होंगें ।


प्रारम्भ

यह एक साधारण-सा नियम है कि गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही हमें संतों का स्न्ध्य और उनकी कृपा प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ हेमाडपंत स्वयं अपनी घटना प्रस्तुत करते है । वे अनेक वर्षों तक बम्बई के उपनगर बांद्रा के स्थानीय न्यायाधीश रहे । पीर मौलाना नामक एक मुस्लिम संत भी वहीं निवास करते थे । उनके दर्शनार्थ अनेक हिन्दू, पारसी और अन्य धर्मावलंबी वहाँ जाया करते थे । उनके मुजावर (पुजारी) ने हेमाडपंत से भी उलका दर्शन करने के लिये बहुत आग्रह किया, परन्तु किसी न किसी कारण वश उनकी भेंट उनसे न हो सकी । अनेक वर्षों के उपरान्त जब उनका शुभ काल आया, तब वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दरबार में जाकर स्थायी रुप से सम्मिलित हो गए । भाग्यहीनों को संतसमागम की प्राप्ति कैसे हो सकती है । केवल वे ही सौभाग्यशाली हे, जिन्हें ऐसा अवसर प्राप्त हो ।


संतों द्घारा लोकशिक्षा

संतों द्घारा लोकशिक्षा का कार्य चिरकाल से ही इस विश्व में संपादित होता आया है । अनेकों संत भिन्न-भिन्न स्थानों पर किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वयं प्रगट होते है । यघपि उनका कार्यस्थल भिन्न होता है, परन्तु वे सब पूर्णतः एक ही है । वे सब उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की संचालनशक्ति के अंतर्गत एक ही लहर में कार्य करते है । उन्हें प्रत्येक के कार्य का परस्पर ज्ञान रहता है और आवश्यकतानुसार परस्पर कमी की पूर्ति करते है, जो निम्नलिखित घटना द्घारा स्पष्ट है ।


श्री. ठाकुर

श्री. व्ही. एच. ठाकुर, बी. ए. रेव्हेन्यू विभाग में एक कर्मचारी थे । वे एक समय भूमिमापक दल के साथ कार्य करते हुए बेलगाँव के समीप वडगाँव नामक ग्राम में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक कानड़ी संत पुरुष (आप्पा) के दर्शन कर उनकी चरण वन्दना की । वे अपने भक्तों को निश्चलदासकृत विचार-सागर नामक ग्रंथ (जो वेदान्त के विषय में है) का भावार्थ समझा रहे थे । जब श्री. ठाकुर उनसे विदाई लेने लगे तो उन्होंने कहा, तुम्हें इस ग्रंथ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये और ऐसा करने से तुम्हारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायेंगी तथा जब कार्य करते-करते कालान्तर में तुम उत्तर दिशा में जाओगे तो सौभाग्यवश तुम्हारी एक महान् संत से भेंट होगी, जो मार्ग-पर्दर्शन कर तुम्हारे हृदय को शांति और सुख प्रदान करेंगे ।

बाद में उनका स्थानांतरण जुन्नर को हो गया, जहाँ कि नाणेघाट पार करके जाना पड़ता था । यह घाट अधिक गहरा और पार करने में कठिन था । इसलिये उन्हें भैंसे की सवारी कर घाट पार करना पड़ा, जो उन्हें अधिक असुविधाजनक तथा कष्टकर प्रतीत हुआ । इसके पश्चात् ही उनका स्थानांतरण कल्याण में एक उच्च पद पर हो गया और वहाँ उनका नानासाहेब चाँदोरकर से परिचय हो गया । उनके द्घारा उन्हें श्री साईबाबा के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात हुआ और उन्हें उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई । दूसरे दिन ही नानासाहेब शिरडी को प्रस्थान कर रहे थे । उन्होंने श्री. ठाकुर से भी अपने साथ चलने का आग्रह किया । ठाणे के दीवानी-न्यायालय में एक मुकदमे के संबंध में उनकी उपस्थिति आवश्यक होने के कारण वे उनके साथ न जा सके । इस कारण नानासाहेब अकेले ही रवाना हो गये । ठाणे पहुँचने पर मुकदमे की तारीख आगे के लिए बढ़ गई । इसलिए उन्हें ज्ञात हुआ कि नानासाहेब पिछले दिन ही यहाँ से चले गये है । वे अपने कुछ मित्रों के साथ, जो उन्हें वहीं मिल गये थे, श्री साईबाबा के दर्शन को गए । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और उनके चरणकमलों की आराधना कर अत्यन्त हर्षित हुए । उन्हें रोमांच हो आया और उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगी । त्रिकालदर्शी बाबा ने उनसे कहा – इस स्थान का मार्ग इतना सुमा नही, जितना कि कानड़ी संत अप्पा के उपदेश या नाणेघाट पर भैंसे की सवारी थी । आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिये तुम्हें घोर परिश्रम करना पडेगा, क्योंकि वह अत्यन्त कठिन पथ है । जब श्री. ठाकुर ने हेतुगर्भ शब्द सुने, जिनका अर्थ उनके अतिरिक्त और कोई न जानता था तो उनके हर्ष का पारावार न रहा और उन्हें कानड़ी संत के वचनों की स्मृति हो आई । तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर बाबा के चरणों पर अपना मस्तक रखा और उनसे प्रार्थना की कि प्रभु, मुझ पर कृपा करो और इस अनाथ को अपने चरण कमलों की शीतलछाया में स्थान दो । तब बाबा बोले, जो कुछ अप्पा ने कहा, वह सत्य था । उसका अभ्यास कर उसके अनुसार ही तुम्हें आचरण करना चाहिये । व्यर्थ बैठने से कुछ लाभ न होगा । जो कुछ तुम पठन करते हो, उसको आचरण में भी लाओ, अन्यथा उसका उपयोग ही क्या । गुरु कृपा के बिना ग्रंथावलोकन तथा आत्मानुभूति निरर्थक ही है । श्री. ठाकुर ने अभी तक केवल विचार सागर ग्रन्थ में सैद्घांतिक प्रकरण ही पढ़ा था, परन्तु उसकी प्रत्यक्ष व्यवहार प्रणाली तो उन्हें शिरडी में ही ज्ञात हुई । एक दूसरी कथा भी इस सत्य का और अधिक सशक्त प्रमाण है ।


श्री. अनंतराव पाटणकर

पूना के एक महाशय, श्री. अनंतराव पाटणकर श्री साईबाबा के दर्शनों के इच्छुक थे । उन्होंने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये । दर्शनों से उनके नेत्र शीतल हो गये और वे अति प्रसन्न हुए । उन्होंने बाबा के श्री चरण छुए और यथायोग्य पूजन करने के उपरान्त बोले, मैंने बहुत कुछ पठन किया । वेद, वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया तथा अन्य पुराण भी श्रवण किये, फिर भी मुझे शान्ति न मिल सकी । इसलिये मेरा पठन व्यर्थ ही सिदृ हुआ । एक निरा अज्ञानी भक्त मुझसे कहीं श्रेष्ठ है । जब तक मन को शांति नहीं मिलती, तब तक ग्रन्थावलोकन व्यर्थ ही है । मैंने ऐसा सुना है कि आप केवल अपनी दृष्टि मात्र से और विनोदपूर्ण वचनों द्घारा दूसरों के मन को सरलतापूर्वक शान्ति प्रदान कर देते है । यही सुनकर मैं भी यहाँ आया हूँ । कृपा कर मुझ दास को भी आर्शीवाद दीजिये । ततब बाबा ने निम्नलिखित कथा कही -


घोड़ी की लीद के लौ गोले (नवधा भक्ति)

एक समय एक सौदागर यहाँ आया । उसके सम्मुख ही एक घोड़ी ने लीद की । जिज्ञासु सौदागर ने अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसमें लीद के नौ गोले रख लिये और इस प्रकार उसके चित्त को शांति पत्राप्त हुई । श्री. पाटणकर इस कथा का कुछ भी अर्थ न समझ सके । इसलिये उन्होंने श्री. गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर से अर्थ समझाने की प्रार्थना की और पूछा कि बाबा के कहने का अभिप्राय क्या है । वे बोले कि जो कुछ बाबा कहते है, उसे मैं स्वयं भी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, परंतु उनकी प्रेरणा से ही मैं जो कुछ समझ सका हूँ, वह तुम से कहता हूँ । घोड़ी है ईश-कृपा, और नौ एकत्रित गोले है नवविधा भक्ति-यथा –

1.श्रवण
2.कीर्तन
3.नामस्मरण
4.पादसेवन
5.अर्चन
6.वन्दन
7.दास्य या दासता
8.सख्यता और
9.आत्मनिवेदन ।
ये भक्ति के नौ प्रकार है । इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगववान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे । समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का समपुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है । वेदज्ञानी या व्रहमज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है । आवश्यकता है तो केवल पूर्ण भक्ति की । अपने को भी उसी सौदागर के समान ही जानकर और व्यग्रता तथा उत्सुकतापूर्वक सत्य की खोज कर नौ प्रकार की भक्ति को प्राप्त करो । तब कहीं तुम्हें दृढ़ता तथा मानसिक शांति प्राप्त होगी ।

दूसरे दिन जब श्री. पाटणकर बाबा को प्रणाम करने गये तो बाबा ने पूछा कि क्या तुमने लीद के नौ गोले एकत्रित किये । उन्होंने कहा कि मैं अनाश्रित हूँ । आपकी कृपा के बिना उन्हें सरलतापूर्वक एकत्रित करना संभव नहीं है । बाबा ने उन्हें आर्शीवाद देकर सांत्वना दी कि तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो जायेगी, जिसे सुनकर श्री. पाटणकर के हर्षे का पारावार न रहा ।


पंढ़रपुर के वकील

भक्तों के दोष दूर कर, उन्हें उचित पथ पर ला देने की बाबा की त्रिकालज्ञता की एक छोटी-सी कथ का वर्णन कर इस अध्याय को समाप्त करेंगे । एक समय पंढरपुर से एक वकील शिरडी आये । उन्होंने बाबा के दर्शन कर उन्हं प्रणाम किया तथा कुछ दक्षिणा भेंट देकर एक कोने में बैठ वार्तालाप सुनने लगे । बाबा उनकी ओर देख कर कहने लगे कि लोग कितने धूर्त है, जो यहाँ आकर चरणों पर गिरते और दक्षिणा देते है, परंतु भीतर से पीठ पीछे गालियाँ देते रहते है । कितने आश्चर्य की बात है न । यह पगड़ी वकील के सिर पर ठीक बैठी और उन्हें उसे पहननी पड़ी । कोई भी इन शब्दों का अर्थ न समझ सका । परन्तु वकील साहब इसका गूढ़ार्थ समझ गये, फिर भी वे नतशिर बैठे ही रहे । वाड़े को लौटकर वकील साहब ने काकासाहेब दीक्षित को बतलाया कि बाबा ने जो कुछ उदाहरण दिया और जो मेरी ही ओर लक्ष्य कर कहा गया था, वह सत्य है । वह केवल चेतावनी ही थी कि मुझे किसी की निन्दा न करनी चाहिए । एक समय जब उपन्यायाधीश श्री. नूलकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिये पंढरपुर से शिरडी आकर ठहरे तो बताररुम में उनके संबंध में चर्चा हो रही थी । विवाद का विषय था कि जीस व्याधि से उपन्यायाधीश अस्वस्थ है, क्या बिना औषधि सेवन किये केवल साईबाबा की शरण में जाने से ही उससे छुटकारा पाना सम्भव है । और क्या श्री. नूलकर सदृश एक शिक्षित व्यक्ति को इस मार्ग का अवलम्बन करना उचित है । उस समय नूलकर का और साथ ही श्री साईबाबा का भी बहुत उपहास किया गया । मैंने भी इस आलोचना में हाथ बँटाया था । श्री साईबाबा ने मेरे उसी दूषित आचरण पर प्रकाश डाला है । यह मेरे लिये उपहास नही, वरन् एक उपकार है, जो केवल परामर्श है कि मुझे किसी की निनदा न करनी चाहिए और न ही दूसरों के कार्यों में विघ्न डालना चाहिए ।

शिरडी और पंढरपुर में लगभग 300 मील का अन्तर है । फिर भी बाबा ने अपनी सर्वज्ञता द्घारा जान लिया कि बाररुम में क्या चल रहा था । मार्ग में आने वाली नदियाँ, जंगल और पहाड़ उनकी सर्वज्ञता के लिये रोड़ा न थे । वे सबके हृदय की गुहृ बात जान लेते थे और उनसे कुछ छिपा न था । समीपस्थ या दूरस्थ प्रत्येक वस्तु उन्हें दिन के प्रकाश के समान जाज्वल्यमान थी तथा उनकी सर्वव्यापक दृष्टि से ओझल न थी । इस घटना से वकीलसाहब को शिक्षा मिलीकि कभी किसी का छिद्रान्वेषण एवं निंदा नहीं करनी चाहिए । यह कथा केवल वकीलसाहव को ही नहीं, वरन सबको शिक्षाप्रद है । श्री साईबाबा की महानता कोई न आँक सका और न ही उनकी अदभुत लीलाओं का अंत ही पा सका । उनकी जीवनी भी तदनुरुप ही है, क्योंकि वे परब्रहास्वरुप है ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 22 - सर्प-विष से रक्षा - श्री. बालासाहेब मिरीकर, श्री. बापूसाहेब बूटी, श्री. अमीर शक्कर, श्री. हेमाडपंत,बाबा की सर्प मारने पर सलाह


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प्रस्तावना

श्री साईबाबा का ध्यान कैसे किया जाय । उस सर्वशक्तिमान् की प्रकृति अगाध है, जिसका वर्णन करने में वेद और सहस्त्रमुखी शेषनाग भी अपने को असमर्थ पाते है । भक्तों की स्वरुप वर्णन से रुचि नहीं । उनकी तो दृढ़ धारणा है कि आनन्द की प्राप्ति केवल उनके श्रीचरणों से ही संभव है । उनके चरणकमलों के ध्यान के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का अन्य मार्ग विदित ही नहीं । हेमाडपंत भक्ति और ध्यान का जो एक अति सरल मार्ग सुझाते है, वह यह है –

कृष्ण पक्ष के आरम्भ होने पर चन्द्र-कलाएँ दिन प्रतिदिन घटती चलती है तथा उनका प्रकाण भी क्रमशः क्षीण होता जाता है और अन्त में अमावस्या के दिन चन्द्रमा के पूर्ण विलीन रहने पर चारों ओर निशा का भयंकर अँधेरा छा जाता है, परन्तु जब शुक्ल पक्ष का प्रारंभ होता है तो लोग चन्द्र-दर्शन के लिए अति उत्सुक हो जाते है । इसके बाद द्घितीया को जब चन्द्र अधिक स्पष्ट गोचर नहीं होता, तब लोगों को वृक्ष की दो शाखाओं के बीच से चन्द्रदर्शन के लिये कहा जाता है और जब इन शाखाओं के बीच उत्सुकता और ध्यानपूर्वक देखने का प्रयत्न किया जाता है तो दूर क्षितिज पर छोटी-सी चन्द्र रेखा के दृष्टिगोचर होते ही मन अति प्रफुल्लि हो जाता है । इसी सिद्घांत का अनुमोदन करते हुए हमें बाबा के श्री दर्शन का भी प्रयत्न करना चाहिये । बाबा के चित्र की ओर देखो । अहा, कितना सुन्दर है । वे पैर मोड़ कर बैठे है और दाहिना पैर बायें घुटने पर रखा गया है । बांये हाथ की अँगुलियाँ दाहिने चरण पर फैली हुई है । दाहिने पैर के अँगूठे पर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियाँ फैली हुई है । इस आकृति से बाबा समझा रहे है कि यदि तुम्हें मेरे आध्यात्मिक दर्शन करने की इच्छा हो तो अभिमानशून्य और विनम्र होकर उक्त दो अँगुलियों के बीच से मेरे चरण के अँगूठे का ध्यान करो । तब कहीं तुम उस सत्य स्वरुप का दर्शन करने में सफल हो सकोगे । भक्ति प्राप्त करने का यह सब से सुगम पंथ है ।

अब एक क्षण श्री साईबाबा की जीवनी का भी अवलोकन करें । साईबाबा के निवास से ही शिरडी तीर्थस्थल बन गया है । चारों ओर के लोगोंकी वहाँ भीड़ प्रतिदिन बढ़ने लगी है तथा धनी और निर्धन सभी को किसी न किसी रुप में लाभ पहुँच रहा है । बाबा के असीम प्रेम, उनके अदभुत ज्ञानभंडार और सर्वव्यापकता का वर्णन करने की सामर्थ्य किसे है । धन्य तो वही है, जिसे कुछ अनुभव हो चुका है । कभी-कभी वे ब्रहा में निमग्नरहने के कारण दीर्घ मौन धारण कर लिया करते थे । कभी-कभी वे चैतन्यघन और आनन्द मूर्ति बन भक्तों से घरे हुए रहते थे । कभी दृष्टान्त देते तो कभी हास्य-विनोद किया करते थे । कभी सरल चित्त रहते तो कभी कुदृ भी हो जाया करते थे । कभी संझिप्त और कभी घंटो प्रवचन किया करते थे । लोगों की आवश्यकतानुसार ही भिन्न-भिन्न प्रकारा के उपदेश देते थे । उनका जीवनी और अगाध ज्ञान वाचा से परे थे । उनके मुखमंडल के अवलोकन, वार्तालाप करने और लीलाएँ सुनने की इच्छाएँ सदा अतृप्त ही बनी रही । फिर भी हम फूले न समाते थे । जलवृष्टि के कणों की गणना की जा सकती है, वायु को भी चर्मकी थैल में संचित किया जा सकता है, परन्तु बाबा की लीलाओं का कोई भी अंत न पा सका । अब उन लीलाओं में से एक लीला का यहाँ भी दर्शन करें । भक्तों के संकटों के घटित होने के पूर्व ही बाबा उपयुक्त अवसर पर किस प्रकार उनकी रक्षा किया करते थे । श्री. बालासाहेब मिरीकर, जो सरदार काकासाहेब के सुपुत्र तथा कोपरगाँव के मामलतदार थे, एक बार दौरे पर चितली जा रहे थे । तभी मार्ग में, वे साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे । उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा की चरण-वन्दना की और सदैव की भाँति स्वास्थ्य तथा अन्य विषयों पर चर्चा की । बाबा ने उन्हें चेतावनी देकर कहा कि क्या तुम अपनी द्घारकामाई को जानते हो । श्री. बालासाहेब इसका कुछ अर्थ न समझ सके, इसीलिए वे चुप ही रहे । बाबा ने उनसे पुनः कहा कि जहाँ तुम बैठे हो, वही द्घारकामाई है । जो उसकी गोद में बैठता है, वह अपने बच्चों के समस्त दुःखों और कठिनाइयों को दूर कर देती है । यह मसजिद माई परम दयालु है । सरल हृदय भक्तों की तो वह माँ है और संकटों में उनकी रक्षा अवश्य करेगी । जो उसकी गोद में एक बार बैठता है, उसके समस्त कष्ट दूर हो जाते है । जो उसकी छत्रछाया में विश्राम करता है, उसे आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है । तदुपरांत बाबा ने उन्हें उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रख आर्शीवाद दिया ।

जब श्री. बालासाहेब जाने के लिये उठ खड़े हुए तो बाबा बोले कि क्या तुम ल्मबे बाबा (अर्थात् सर्प) से परिचित हो । और अपनी बाई मुट्ठी बन्द कर उसे दाहिने हाथ की कुहनी के पास ले जाकर दाहिने हाथ को साँप के सदृश हिलाकर बोले कि वह अति भयंकर है, परन्तु द्घारकामाई के लालों का वह कर ही क्या सकता है । जब स्वंय ही द्घारकामाई उनकी रक्षा करने वाली है तो सर्प की सामर्थ्य ही क्या है । वहाँ उपस्थित लोग इसका अर्थ तथा मिरीकर को इस प्रकार चोतावनी देने का कारण जानना चाहते थे, परन्तु पूछने का साहस किसी में भी न होता था । बाबा ने शामा को बुलाया और बालासाहेब के साथ जाकर चितली यात्रा का आनन्द लेने की आज्ञा दी । तब शामा ने जाकर बाबा का आदेश बालासाहेब को सुनाया । वे बोले कि मार्ग में असुविधायें बहुत है, अतः आपको व्यर्थ ही कष्ट उठाना उचित नहीं है । बालासाहेब ने जो कुछ कहा, वह शामा ने बाबा को बताया । बाबा बोले कि अच्छा ठीक है, न जाओ । सदैव उचित अर्थ ग्रहणकर श्रेष्ठ कार्य ही करना चाहिये । जो कुछ होने वाला है, सो तो होकर ही रहेगा ।

बालासाहेब ने पुनः विचार कर शामा को अपने साथ चलने के लिये कहा । तब शामा पुनः बाबाकी आज्ञा प्राप्त कर बालासाहेब के साथ ताँगे में रवाना हो गये । वे नौ बजे चितली पहुँचे और मारुति मंदिर में जाकर ठहरे । आफिस के कर्मचारीगण अभी नहीं आये थे, इस कारण वे यहाँ-वहाँ की चर्चायें करने लगे । बालासाहेब दैनिक पत्र पढ़ते हुए चटाई पर शांतिपूर्वक बैठे थे । उनकी धोती का ऊपरी सिरा कमर पर पड़ा हुआ था और उसी के एक भाग पर एक सर्प बैठा हुआ था । किसी का भी ध्यान उधर न था । वह सी-सी करता हुआ आगे रेंगने लगा । यह आवाज सुनकर चपरासी दौड़ा और लालटेन ले आया । सर्प को देखकर वह साँप साँप कहकर उच्च स्वर में चिल्लाने लगा । तब बालासाहेब अति भयभीत होकर काँपने लगे । शामा को भी आश्चर्य हुआ । तब वे तथा अन्य व्यक्ति वहाँ से धीरे से हटे और अपने हाथ में लाठियाँ ले ली । सर्प धीरे-धीरे कमर से नीचे उतर आया । तब लोगों ने उसका तत्काल ही प्राणांत कर दिया । जिस संकट की बाबा ने भविष्यवाणी की थी, वह टल गया और साई-चरणों में बालासाहेब का प्रेम दृढ़ हो गया ।

बापूसाहेब बूटी

एक दिन महान् ज्योतिषी श्री. नानासाहेब डेंगलें ने बापूसाहेब बूटी से (जो उस समय शिरडी में ही थे) कहा आज का दिन तुम्हारे लिये अत्यन्त अशुभ है और तुम्हारे जीवन को भयप्रद है । यह सुनकर बापूसाहेब बडे अधीर हो गये । जब सदैव की भाँति वे बाबा के दर्शन करने गये तो वे बोले कि ये नाना क्या कहते है । वे तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी कर रहे है, परन्तु तुम्हें भयभीत होने की किंचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं है । इनसे दृढ़तापूर्वक कह दो कि अच्छा देखे, काल मेरा किस भाँति अपहरण करता है । जब संध्यासमय बापू अपने शौच-गृह में गये तो वहाँ उन्हें एक सर्पत दिखाई दिया । उनके नौकर ने भी सर्प को देख लिया और उसे मारने को एक पत्थर उठाया । बापूसाहेब ने एक लम्बी लकड़ी मँगवाई, परन्तु लकड़ी आने से पूर्व ही वह साँप दूरी पर रेंगता हुआ दिखाई दिया । और तुरन्त ही दृष्टि से ओझल हो गया । बापूसाहेब को बाबा के अभयपूर्ण वचनों का स्मरण हुआ और बड़ा ही हर्ष हुआ ।

अमीर शक्कर

अमीर शक्कर कोरले गाँव का निवासी था, जो कोपरगाँव तालुके में है । वह जाति का कसाई था और बान्द्रा में दलाली का धंधा किया करता था । वह प्रसिदृ व्यक्तियों में से एक था । एक बार वह गठिया रोग से अधिक कष्ट पा रहा था । जब उसे खुदा की स्मृति आई, तब काम-धंधा छोड़कर वह शिरडी आया और बाबा से रोग-निवृत्ति की प्रार्थना करने लगा । तब बाबा ने उसे चावड़ी में रहने की आज्ञा दे दी । चावड़ी उस समय एक अस्वास्थ्यकारक स्थान होने के कारण इस प्रकार के रोगियों के लिये सर्वथा ही अयोग्य था । गाँव का अन्य कोई भी स्थान उसके लिये उत्तम होता, परन्तु बाबा के शब्द तो निर्णयात्मक तथा मुख्य औषधिस्वरुप थे । बाबा ने उसे मसजिद में न आने दिया और चावड़ी में ही रहने की आज्ञा दी । वहाँ उसे बहुत लाभ हुआ । बाबा प्रातः और सायंकाल चावड़ी पर से निकलते थे तथा एक दिन के अंतर से जुलूस के साथ वहाँ आते और वहीं विश्राम किया करते थे । इसलिये अमीर को बाबा का सानिध्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाया करता था । अमीर वहाँ पूरे नौ मास रहा । जब किसी अन्य कारणवश उसका मन उस स्थान से ऊब गया, तब एक रात्रि में वह चोरीसे उस स्थान को छोड़कर कोपरगाँव की धर्मशाला में जा ठहरा । वहाँ पहुँचकर उसने वहाँ एक फकीर को मरते हुए देखा, जो पानी माँग रहा था । अमीर ने उसे पानी दिया, जिसे पीते ही उसका देहांत हो गया । अब अमीर किंक्रतव्य-विमूढ़ हो गया । उसे विचार आया कि अधिकारियों को इसकी सूचना दे दूँ तो मैं ही मृत्यु के लिये उत्तरदायी ठहराया जाऊँगा और प्रथम सूचना पहुँचाने के नाते कि मुझे अवश्य इस विषय की अधिक जानकारी होगी, सबसे प्रथम मैं ही पकड़ा जाऊँगा । तब विना आज्ञा शिरडी छोड़ने की उतावली पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । उसने बाबा से मन ही मन प्रार्थना की और शिरडी लौटने का निश्चय कर उसी रात्रि बाबा का नाम लेते हुए पौ फटने से पूर्व ही शिरडी वापस पहुँचकर चिंतामुक्त हो गया । फिर वह चावड़ी में बाबा की इच्छा और आज्ञानुसार ही रहने लगा और शीघ्र ही रोगमुक्त हो गया ।

एक समय ऐसा हुआ कि अर्दृ रात्रि को बाबा ने जोर से पुकारा कि ओ अब्दुल कोई दुष्ट प्राणीमेरे बिस्तर पर चढ़ रहा है । अब्दुल ने लालटेन लेक बाबा का बिस्तर देखा, परन्तु वहाँ कुछ भी न दिखा । बाबा ने ध्यानपूर्वक सारे स्थान का निरीक्षण करने को कहा और वे अपना सटका भी जमीन पर पटकने लगे । बाबा की यह लीला देखकर अमीर ने सोचा कि हो सकता है कि बाबा को किसी साँप के आने की शंका हुई हो ।

दीर्घ काल तक बाबा की संगति में रहने के कारण अमीर को उनके शब्दों और कार्यों का अर्थ समझ में आ गया था । बाबा ने अपने बिस्तर के पास कुछ रेंगता हुआ देखा, तब उन्होंने अब्दुल से बत्ती मँगवाई और एक साँप को कुंडली मारे हुये वहाँ बैठे देखा, जो अपना फन हिला रहा था । फिर वह साँप तुरन्त ही मार डाला गया । इस प्रकार बाबा ने सामयिक सूचना देकर अमीर के प्राणों की रक्षा की ।

हेमाडपंत (बिच्छू और साँप)

1.बाबा की आज्ञानुसार काकासाहेब दीक्षित श्रीएकनाथ महाराज के दो ग्रन्थों भागवत और भावार्थरामायण का नित्य पारायण किया करते थे । एक समय जब रामायण का पाठ हो रहा था, तब श्री हेमाडपंत भी श्रोताओं में सम्मिलित थे । अपनी माँ के आदेशानुसार किस प्रकार हनुमान ने श्री राम की महानताकी परीक्षा ली – यह प्रसंग चल रहा था, सब श्रोता-जन मंत्रमुग्ध हो रहे थे तथा हेमाडपंत की भी वही स्थिति थी । पता नहीं कहाँ से एक बड़ा बिच्छू उनके ऊपर आ गिरा और उनके दाहिने कंधे पर बैठ गया, जिसका उन्हें कोई भान तक न हुआ । ईश्वर को श्रोताओं की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है । अचानक ही उनकी दृष्टि कंधे पर पड़ गई । उन्होंने उस बिच्छू को देख लिया । वह मृतप्राय.-सा प्रतीत हो रहा था, मानो वह भी कथा के आनन्द में तल्लीन हो । हरि-इच्छा जान कर उन्होंने श्रोताओं में बिना विघ्न डाले उसे अपनी धोती के दोनों सिरे मिलाकर उसमें लपेट लिया और दूर ले जाकर बगीचे में छोड़ दिया ।
1.एक अन्य अवसर पर संध्या समय काकासाहेब वाड़े के ऊपरी खंड में बैठे हुये थे, तभी एक साँप खिड़की की चौखट के एक छिद्र में से भीतर घुस आया और कुंडली मारकर बैठ गया । बत्ती लाने पर पहले तो वह थोड़ा चमका, फिर वहीं चुपचार बैठा रहा और अपना फन हिलाने लगा । बहुत-से लोग छड़ी और डंडा लेकर वहाँ दौड़े । परन्तु वह एक ऐसे सुरक्षित स्थान पर बैठा था, जहाँ उस पर किसी के प्रहार का कोई भी असर न पड़ता था । लोगों का शोर सुनकर वह शीघ्र ही उसी छिद्र में से अदृश्य हो गया, तब कहीं सब लोगों की जान में जान आई ।
बाबा के विचार

एक भक्त मुक्ताराम कहने लगा कि चलो, अच्छा ही हुआ, जो एक जीव बेचारा बच गया । श्री. हेमाडपंत ने उसकी अवहेलना कर कहा कि साँप को मारना ही उचित है । इस कारण इस विषय पर वादविवाद होने लगा । एक का मत था कि साँप तथा उसके सदृश जन्तुओं को मार डालना ही उचित है, किन्तु दूसरे का इसके विपरीत मत था । रात्रि अधिक हो जाने के कारण किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना ही ही उन्हें विवाद स्थगित करना पड़ा । दूसरे दिन यह प्रश्न बाबा के समक्ष लाया गया । तब बाबा निर्णयात्मक वचन बोले कि सब जीवों में और सम्स्त प्राणियों में ईश्वर का निवास है, चाहे वह साँप हो या बिच्छू । वे ही इस विश्व के नियंत्रणकर्ता है और सब प्राणी साँप, बिच्छू इत्यादि उनकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । उनकी इच्छा के बिना कोई भी दूसरों को नहीं पहुँचा सकता । समस्त विश्व उनके अधीन है तथा स्वतंत्र कोई भी नहीं है । इसलिये हमें सब प्राणियों से दया और स्नेह करना चाहिए । संघर्ष एवं बैमनस्य या संहार करना छोड़कर शान्त चित्त से जरीवन व्यतीत करना चाहिए । ईश्वर सबका ही रक्षक है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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