Friday, December 10, 2010

अध्याय 45 - 51


अध्याय 45 - संदेह निवारण


काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न, बाबा के विश्राम के लिये लकड़ी का तख्ता ।


प्रस्तावना

गत तीन अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब बाबा का साकार स्वरुप लुप्त हो गया है, परन्तु उनका निराकार स्वरुप तो सदैव ही विघमान रहेगा । अभी तक केवल उन्हीं घटनाओं और लीलाओं का उल्लेख किया गया है, जो बाबा के जीवमकाल में घटित हुई थी । उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् भी अनेक लीलाएँ हो चुकी है और अभी भी देखने में आ रही है, जिनसे यह सिदृ होता है कि बाबा अभी भी विघमान है और पूर्व की ही भाँति अपने भक्तों को सहायता पहुँचाया करते है । बाबा के जीवन-काल में जिन व्यक्तियों को उनका सानिध्य या सत्संग प्राप्त हुआ, यथार्थ में उनके भाग्य की सराहना कौन कर सकता है । यदि किसी को फिर भी ऐंद्रिक और सांसारिक सुखों से वैराग्य प्राप्त नहीं हो सका तो इस दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । जो उस समय आचरण में लाया जाना चाहिये था और अभी भी लाया जाना चाहिये, वह है अनन्य भाव से बाबा की भक्ति । समस्त चेतनाओं, इन्द्रिय-प्रवृतियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की ओर लगाना चाहिये । कृत्रिम पूजन से क्या लाभ । यदि पूजन या ध्यानादि करने की ही अभिलाषा है तो वह शुदृ मन और अन्तःकरण से होनी चाहिये ।

जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री का विशुदृ प्रेम अपने पति पर होता है, इस प्रेम की उपमा कभी-कभी लोग शिष्य और गुरु के प्रेम से भी दिया करते है । परन्तु फिर भी शिष्य और गुरु-प्रेम के समक्ष पतिव्रता का प्रेम फीका है और उसकी कोई समानता नहीं की जा सकती । माता, पिता, भाई या अन्य सम्बन्धी जीवन का ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करने में कोई सहायता नहीं पहुँचा सकते । इसके लिये हमें स्वयं अपना मार्ग अन्वेषण कर आत्मानुभूति के पथ पर अग्रसर होना पड़ता है । सत्य और असत्य में विवेक, इहलौकिक तथा पारलौकिक सुखों का त्याग, इन्द्रियनिग्रह और केवल मोक्ष की धारणा रखते हुए अग्रसर होना पड़ता है । दूसरों पर निर्भर रहने के बदले हमें आत्मविश्वास बढ़ाना उचित है । जब हम इस प्रकार विवेक-बुद्घि से कार्य करने का अभ्यास करेंगे तो हमें अनुभव होगा कि यह संसार नाशवान् और मिथ्या है । इस प्रकार की धारणा से सांसारिक पदार्थों में हमारी आसक्ति उत्तरोत्तर घटती जायेगी और अन्त में हमें उनसे वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा । तब कहीं आगे चलकर यह रहस्य प्रकट होगा कि ब्रहृ हमारे गुरु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, वरन् यथार्थ में वे ही सदवस्तु (परमात्मा) है और यह रहस्योदघाटन होता है कि यह दृश्यमान जगत्
उनका ही प्रतिबिम्ब है । अतः इस प्रकार हम सभी प्राणियों में उनके ही रुप का दर्शन कर उनका पूजन करना प्रारम्भ कर देते है और यही समत्वभाव दृश्यमान जगत् से विरक्ति प्राप्त करानेवाला भजन या मूलमंत्र है । इस प्रकार जब हम ब्रहृ या गुरु की अनन्यभाव से भक्ति करेंगे तो हमें उनसे अभिन्नता की प्राप्ति होगी और आत्मानुभूति की प्राप्ति सहज हो जायेगी । संक्षेप में यह कि सदैव गुरु का कीर्तन और उनका ध्यान करना ही हमें सर्वभूतों में भगवत् दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है और इसी से परमानंद की प्राप्ति होती है । निम्नलिखित कथा इस तथ्य का प्रमाण है ।


काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न

यह तो सर्वविदित ही है कि बाबा ने काकासाहेब दीक्षित को श्री एकनाथ महाराज के दो ग्रन्थ

1.श्री मदभागवत और
2.भावार्थ रामायण
का नित्य पठन करने की आज्ञा दी थी । काकासाहेब इन ग्रन्थों का नियमपूर्वक पठन बाबा के समय से करते आये है और बाबा के सम्धिस्थ होने के उपरान्त अभी भी वे उसी प्रकार अध्ययन कर रहे । एक समय चौपाटी (बम्बई) में काकासाहेब प्रातःकाल एकनाथी भागवत का पाठ कर रहे थे । माधवराव देशपांडे (शामा) और काका महाजनी भी उस समय वहाँ उपस्थित थे तथा ये दोनों ध्यानपूर्वक पाठ श्रवण कर रहे थे । उस समय 11वें स्कन्ध के द्घितीय अध्याय का वाचन चल रहा था, जिसमें नवनाथ अर्थात् ऋषभ वंश के सिद्घ यानी कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुदृ, पिप्पलायन, आविहोर्त्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन का वर्णन है, जिन्होंने भागवत धर्म की महिमा राजा जनक को समझायी थी । राजा जनक ने इन नव-नाथों से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे और इन सभी ने उनकी शंकाओं का बड़ा सन्तोषजनक समाधान किया था, अर्थात् कवि ने भागवत धर्म, हरि ने भक्ति की विशेषताएँ, अतंरिक्ष ने माया क्या है, प्रबुदृ ने माया से मुक्त होने की विधि, पिप्लायन ने परब्रहृ के स्वरुप, आविहोर्त्र ने कर्म के स्वरुप, द्रुमिल ने परमात्मा के अवतार और उनके कार्य, चमस ने नास्तिक की मृत्यु के पश्चात् की गति एवं करभाजन ने कलिकाल में भक्ति की पद्घतियों का यथाविधि वर्णन किया । इन सबका अर्थ यही था कि कलियुग में मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन केवल हरिकीर्तन या गुरु-चरणों का चिंतन ही है । पठन समाप्त होने पर काकसाहेब बहुत निराशापूर्ण स्वर में माधवराव और अन्य लोगों से कहने लगे कि नवनाथों की भक्ति पदृति का क्या कहना है, परन्तु उसे आचरण में लाना कितना दुष्कर है । नाथ तो सिदृ थे, परन्तु हमारे समान मूर्खों में इस प्रकार की भक्ति का उत्पन्न होना क्या कभी संभव हो सकता है । अनेक जन्म धारण करने पर भी वैसी भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती तो फिर हमें मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे लिये तो कोई आशा ही नहीं है । माधवराव को यह निराशावादी धारणा अच्छी न लगी । व कहने लगे कि हमारा अहोभाग्य है, जिसके फलस्वरुप ही हमें साई सदृश अमूल्य हीरा हाथ लग गया है, तब फिर इस प्रकार का राग अलापना बड़ी निन्दनीय बात है । यदि तुम्हें बाबा पर अटल विश्वास है तो फिर इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही क्या है । माना कि नवनाथों की भक्ति अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ा और प्रबल होगी, परन्तु क्या हम लोग भी प्रेम और स्नेहपूर्वक भक्ति नहीं कर रहे है । क्या बाबा ने अधिकारपूर्ण वाणी में नहीं कहा है कि श्रीहरि या गुरु के नाम जप से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब फिर भय और चिन्ता को स्थान ही कहाँ रह जाता है । परन्तु फिर भी माधवराव के वचनों से काकासाहेब का समाधान न हुआ । वे फिर भी दिन भर व्यग्र और चिन्तित ही बने रहे । यह विचार उनके मस्तिष्क में बार-बार चक्कर काट रहा था कि किस विधि से नवनाथों के समान भक्ति की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी ।

एक महाशय, जिनका नाम आनन्दराव पाखाडे था, माधवराव को ढूँढते-ढूँढते वहाँ आ पहुँचे । उस समय भागवत का पठन हो रहा था । श्री. पाखाडे भी माधवराव के समीप ही जाकर बैठ गये और उनसे धीरे-धीरे कुछ वार्ता भी करने लगे । वे अपना स्वप्न माधवराव को सुना रहे थे । इनकी कानाफूसी के कारण पाठ में विघ्न उपस्थित होने लगा । अतएव काकासाहेब ने पाठ स्थगित कर माधवराव से पूछा कि क्यों, क्या बात हो रही है । माधवराव ने कहा कि कल तुमने जो सन्देह प्रगट किया था, यह चर्चा भी उसी का समाधान है । कल बाबा ने श्री. पाखाडे को जो स्वप्न दिया है, उसे इनसे ही सुनो । इसमें बताया गया है कि विशेष भक्ति की कोई आवश्यकता नही, केवल गुरु को नमन या उनका पूजन करना ही पर्याप्त है । सभी को स्वप्न सुनने की तीव्र उत्कंठा थी और सबसे अधिक काकासाहेब को । सभी के कहने पर श्री. पाखाडे अपना स्वप्न सुनाने लगे, जो इस प्रकार है – मैंने देखा कि मैं एक अथाह सागर में खड़ा हुआ हूँ । पानी मेरी कमर तक है और अचानक ही जब मैंने ऊपर देखा तो साईबाबा के श्री-दर्शन हुए । वे एक रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थे और उनके श्री-चरण जल के भीतर थे । यह सुन्र दृश्य और बाबा का मनोहर स्वरुप देक मेरा चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ । इस स्वप्न को भला कौन स्वप्न कह सकेगा । मैंने देखा कि माधवराव भी बाबा के समीप ही खड़े है और उन्होंने मुझसे भावुकतापूर्ण शब्दों में कहा कि आनन्दराव । बाबा के श्री-चरणों पर गिरो । मैंने उत्तर दिया कि मैं भी तो यही करना चाहता हूँ । परन्तु उनके श्री-चरण तो जल के भीतर है । अब बताओ कि मैं कैसे अपना शीश उनके चरणों पर रखूँ । मैं तो निस्सहाय हूँ । इन शब्दों को सुनकर शामा ने बाबा से कहा कि अरे देवा । जल में से कृपाकर अपने चरण बाहर निकालिये न । बाबा ने तुरन्त चरण बाहर निकाले और मैं उनसे तुरन्त लिपट गया । बाबा ने मुझे यह कहते हुये आशीर्वाद दिया कि अब तुम आनंदपूर्वक जाओ । घबराने या चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । अब तुम्हारा कल्याण होगा । उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि एक जरी के किनारों की धोती मेरे शामा को दे देना, उससे तुम्हें बहुत लाभ होगा ।

बाबा की आज्ञा को पूर्ण करने के लिये ही श्री. पाखाडे धोती लाये और काकासाहेब से प्रार्थना की कि कृपा करके इसे माधवराव को दे दीजिये, परन्तु माधवराव ने उसे लेना स्वीकार नहीं किया । उन्होंने कहा कि जब तक बाबा से मुझे कोई आदेश या अनुमति प्राप्त नहीं होती, तब तक मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ । कुछ तर्क-वतर्क के पश्चात काका ने दैवी आदेशसूचक पर्चियाँ निकालकर इस बात का निर्णय करने का विचार किया । काकासाहेब का यह नियम था कि जब उन्हें कोई सन्देह हो जाता तो वे कागज की दो पर्चियों पर स्वीकार-अश्वीकार लिखकर उसमेंसे एक पर्ची निकालते थे और जो कुछ उत्तर प्राप्त होता था, उसके अनुसार ही कार्य किया करते थे । इसका भी निपटारा करने के लिये उन्होंने उपयुक्त विधि के अनुसार ही दो पर्चियाँ लिखकर बाबा के चित्र के समक्ष रखकर एक अबोध बालक को उसमें से एक पर्ची उठाने को कहा । बालक द्घारा उठाई गई पर्ची जब खोलकर देखी गई तो वह स्वीकारसूचक पर्ची ही निकली और तब माधवराव को धोती स्वीकार करनी पड़ी । इस प्रकार आनन्दराव और माधवराव सन्तुष्ट हो गये और काकासाहेब का भी सन्देह दूर हो गया ।

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अन्य सन्तों के वचनों का उचित आदर करना चाहिये, परन्तु साथ ही साथ यह भी परम आवश्यक है कि हमें अपनी माँ अर्थात् गुरु पर पूर्ण विश्वास रखस उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिये, क्योंकि अन्य लोगों की अपेक्षा हमारे कल्याण की उन्हें अधिक चिन्ता है ।

बाबा के निम्नलिखित वचनों को हृदयपटल पर अंकित कर लो – इस विश्व में असंख्य सन्त है, परन्तु अपना पिता (गुरु) ही सच्चा पिता (सच्चा गुरु) है । दूसरे चाहे कितने ही मधुर वचन क्यों न कहते हो, परन्तु अपना गुरु-उपदेश कभी नहीं भूलना चाहिये । संक्षेप में सार यही है कि शुगृ हृदय से अपने गुरु से प्रेम कर, उनकी शरण जाओ और उन्हें श्रद्घापूर्वक साष्टांग नमस्कार करो । तभी तुम देखोगे कि तुम्हारे सम्मुख भवसागर का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा सूर्य के समक्ष अँधेरे का ।


बाबा की शयन शैया-लकड़ी का तख्ता

बाबा अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में एक लकड़ी के तख्ते पर शयन किया करते थे । वह तख्ता चार हाथ लम्बा और एक बीता चौड़ा था, जिसके चारों कोनों पर चार मिट्टी के जलते दीपक रखे जाया करते थे । पश्चात् बाबा ने उसके टुकड़े टुकडे कर डाले थे । (जिसका वर्णन गत अध्याय 10 में हो चुका है ) । एक समय बाबा उस पटिये की महत्ता का वर्णन काकासाहेब को सुना रहे थे, जिसको सुनकर काकासाहेब ने बाबा से कहा कि यदि अभी भी आपको उससे विशेष स्नेह है तो मैं मसजिद में एक दूसरी पटिया लटकाये देता हूँ । आप सूखपूर्वक उस पर शयन किया करें । तब बाबा कहने लगे कि अब म्हालसापति को नीचे छोड़कर मैं ऊपर नहीं सोना चाहता ।

काकासाहेब ने कहा कि यदि आज्ञा दें तो मैं एक और तख्ता म्हालसापति के लिये भी टाँग दूँ ।

बाबा बोले कि वे इस पर कैसे सो सकते है । क्या यह कोई सहज कार्य है जो उसके गुण से सम्पन्न हो, वही ऐसा कार्य कर सकता है । जो खुले नेत्र रखकर निद्रा ले सके, वही इसके योग्य है । जब मैं शयन करता हूँ तो बहुधा म्हालसापति को अपने बाजू में बिठाकर उनसे कहता हूँ कि मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर देखते रहो कि कहीं मेरा भगवज्जप बन्द न हो जाय और मुझे थोड़ा- सा भी निद्रित देखो तो तुरन्त जागृत कर दो, परन्तु उससे तो भला यह भी नहीं हो सकता । वह तो स्वंय ही झपकी लेने लगता है और निद्रामग्न होकर अपना सिर डुलाने लगता है और जब मुझे भगत का हाथ पत्थर-सा भारी प्रतीत होने लगता है तो मैं जोर से पुकार कर उठता हूँ कि ओ भगत । तब कहीं वह घबड़ा कर नेत्र खोलता है । जो पृथ्वी पर अच्छी तरह बैठ और सो नहीं सकता तथा जिसका आसन सिदृ नहीं है और जो निद्रा का दास है, वह क्या तख्ते पर सो सकेगा । अन्य अनेक अवसरों पर वे भक्तों के स्नेहवश ऐसा कहा करते थे कि अपना अपने साथ और उसका उसके साथ ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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अध्याय 46 - बाबा की गया यात्रा-बकरों की पूर्व जन्मकथा





इस अध्याय में शामा की काशी, प्रयाग व गया की यात्रा और बाबा किस प्रकार वहाँ इनके पूर्व ही (चित्र के रुप में) पहुँच गये तथा दो बकरों के गत जन्मों के इतिहास आदि का वर्णन किया गया है ।


प्रस्तावना

हे साई । आपके श्रीचरण धन्य है और उनका स्मरण कितना सुखदायी है । आपके भवभयविनाशक स्वरुप का दर्शन भी धन्य है, जिसके फलस्वरुप कर्मबन्धन छिन्नभिन्न हो जाते है । यघपि अब हमें आपके सगुण स्वरुप का दर्शन नहीं हो सकता, फिर भी यदि भक्तगण आपके श्रीचरणों में श्रद्घा रखें तो आप उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव दे दिया करते है । आप एक अज्ञात आकर्षण शक्ति द्घारा निकटस्थ या दूरस्थ भक्तों को अपने समीप खींचकर उन्हें एक दयालु माता की नाई हृदय से लगाते है । हे साई । भक्त नहीं जानते कि आपका निवास कहाँ है, परन्तु आप इस कुशलता से उन्हें प्रेरित करते है, जिसके परिणामस्वरुप भासित होने लगता है कि आपका अभय हस्त उनके सिर पर है और यह आपकी ही कृपा-दृष्टि का परिणाम है कि उन्हें अज्ञात सहायता सदैव प्राप्त होती रहती है । अहंकार के वशीभूत होकर उच्च कोटि के विद्घान और चतुर पुरुष भी इस भवसागर की दलदल में फँस जाते है । परन्तु हे साई । आप केवल अपनी शक्ति से असहाय और सुहृदय भक्तों को इस दलदल से उबारकर उनकी रक्षा किया करते है । पर्दे की ओट में छिपे रहकर आप ही तो सब न्याय कर रहे है । फिर भी आप ऐसा अभिनय करते है, जैसे उनसे आपका कोई सम्बन्ध ही न हो । कोई भी आप की संपूर्ण जीवन गाथा न जान सका । इसलिये यही श्रेयस्कर है कि हम अनन्य भाव से आपके श्रीचरणों की शरण में आ जायें और अपने पापों से मुक्त होने के लिये एकमात्र आपका ही नामस्मरण करते रहे । आप अपने निष्काम भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर उन्हें परमानन्द की प्राप्ति करा दिया करते है । केवल आपके मधुर नाम का उच्चारण ही भक्तों के लिये अत्यन्त सुगम पथ है । इस साधन से उनमें राजसिक और तामसिक गुणों का हिरास होकर सात्विक और धार्मिक गुणों का विकार होगा । इसके साथ ही साथ उन्हें क्रमशः विवेक, वैराग्य और ज्ञान की भी प्राप्ति हो जायेगी । तब उन्हें आत्मस्थित होकर गुरु से भी अभिन्नता प्राप्त होगी और इसका ही दूसरा अर्थ है गुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना । इसका निश्चित प्रमाण केवल यही है कि तब हमारा मन स्थिर और शांत हो जाता है । इस शरणागति, भक्ति और ज्ञान की मह्त्ता अद्घितीय है, क्योंकि इनके साथ ही शांति, वैराग्य, कीर्ति, मोक्ष इत्यादि की भी प्राप्ति सहज ही हो जाती है ।

यदि बाबा अपने भक्तों पर अनुग्रह करते है तो वे सदैव ही उनके समीप रहते है, चाहे भक्त कहीं भी क्योंन चला जाये, परन्तु वे तो किसी न किसी रुप में पहले ही वहाँ पहुँच जाते है । यह निम्नलिखित कथा से स्पष्ट है ।


गया यात्रा

बाबा से परिचय होने के कुछ काल पश्चात ही काकासाहेब रदीक्षित ने अपने ज्येष्ठ पुत्र बापू का नागपुर में उपनयन संस्कार करने का निश्चय किया और गभग उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर ने भी अपने ज्येष्ट पुत्र का ग्वालियार में शादी करने का कार्यक्रम बनाया । दीक्षित और चांदोरकर दोनों ही शिरडी आये और प्रेमपूर्वक उन्होंने बाबा को निमन्त्रण दिया । तब उन्होंने अपने प्रतिनिधि शामा को ले जाने को कहा, परन्तु जब उन्होंने स्वयं पधारने के लिये उनसे आग्रह किया तो उन्होंने उत्तर दिया कि बनारस और प्रयाग निकल जाने के पश्चात, मैं शामा से पहले ही पहुँच जाऊँगा, पाठकगण । कृपया इन शब्दों को ध्यान में रखें, क्योंकि ये शब्द बाबा की सर्वज्ञता के बोधक है ।

बाबा की आज्ञा प्राप्त कर शामा ने इन उत्सवों में सम्मिलित होने के लिये प्रथम नागपुर, ग्वालियर और इसके पश्चात काशी, प्रयाग और गया जाने का निश्चय किया । अप्पाकोते भी शामा के साथ जाने को तैयार हो गये । प्रथम तो वे दोनों उपनयन संस्कार में सम्मिलित होने नागपुर पहुँचे । वहाँ काकासाहेब दीक्षित ने शामा को दो सौ रुपये खर्च के निमित्त दिये । वहाँ से वे लोग विवाह में सम्मिलित होनें ग्वालियर गये । वहाँ नानासाहेब चांदोरकर ने सौ रुपये और उनके संबंधी श्री. जुठर ने भी सौ रुपये शामा को भेंट किये । फिर शामा काशी पहुँचे, जहाँ जठार ने लक्ष्मी-नारायण जी के भव्य मंदिर में उनका उत्तम स्वागत किया, अयोध्या में जठार के व्यवस्थापक ने भी शामा का अच्छा स्वागत किया । शामा और कोते अयोध्या में 21 दिन तथा काशी (बनारस) में दो मास ठहर कर फिर गया को रवाना हो गये । गया में प्लेग फैलने का समाचार रेलगाड़ी में सुनकर इल नोगों को थोड़ी चिन्ता सी होने लगी । फिर भी रात्रि को वे गया स्टेशन पर उतरे और एक धर्मशाला में जाकर ठहरे । प्रातःकाल गया वाला पुजारी (पंडा), जो यात्रियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था किया करता था, आया और कहने लगा कि सब यात्री तो प्रस्थान कर चुके है, इसलिये अब आप भी शीघ्रता करे । शामा ने सहज ही उससे पूछा कि क्या गया में प्लेग फैला है । तब पुजारी ने कहा कि नहीं । आप निर्विघ्र मेरे यहाँ पधारकर वस्तुस्थिति का स्वयं अवलोकन कर ले । तब वे उसके साथ उसके मकान पर पहुँचे । उसका मकान क्या, एक विशाल महल था, जिसमें पर्याप्त यात्री विश्राम पा सकते थे । शामा को भी उसी स्थान पर ठहराया गया, जो उन्हें अत्यन्त प्रिय लगा । बाबा का एक बड़ा चित्र, जो कि मकान के अग्रिम बाग के ठीक मध्य में लगा था, देखकर वे अति प्रसन्न हो गये । उनका हृदय भर आया और उन्हें बाबा के शब्दों की स्मृति हो आई कि मैं काशी और प्रयाग निकल जाने के पश्चात शामा से आगे ही पहुँच जाऊँगा । शामा की आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी और उनके शरीर में रोमांच हो आया तथा कंठ रुँध गया और रोते-रोते उनकी घिग्घियाँ बँध गई । पुजारी ने शामा की जो ऐसी स्थिति देखी तो उसने सोचा कि यह व्यक्ति प्लेगी की सूचना पर भयभीत होकर रुदन कर रहा है, परन्तु शामा ने उसी कल्पना के विपरीत ही प्रश्न किया कि यह बाबा का चित्र तुम्हें कहाँ से मिला । उसने उत्तर दिया कि मेरे दो-तीन सौ दलाल मनमाड और पुणताम्बे श्रेत्र में काम करते है तथा उस क्षेत्र से गया आने वाले यात्रियों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा करते है । वहाँ शिरडी के साई महाराज की कीर्ति मुझे सुनाई पड़ी । लगभग बारह वर्ष हुए, मैंने स्वयं शिरडी जाकर बाबा के श्री दर्शन का लाभ उठाया था और वहीं शामा के घर में लगे हुए उनके चित्र से मैं आकर्षित हुआ था । तभी बाबा की आज्ञा से शामा ने जो चित्र मुझे भेंट किया था, यह वही चित्र है । शामा की पूर्व स्मृति जागृत हो आई और जब गया वाले पुजारी को यह ज्ञात हुआ कि ये वही शामा है, जिन्होंने मुझे इस चित्र द्घारा अनुगृहित किया था और आज मेरे यहाँ अतिथि बनकर ठहरे है तो उसके आनन्द की सीमा न रही । दोनों बड़े प्रेमपूर्वक मिलकर हर्षित हुए । फिर पुजारी ने शामा का बादशाही ढंग से भव्य स्वागत किया । वह एक धनाढ़्य व्यक्ति था । स्वयं डोली में और शामा को हाथी पर बिठाकर खूब घुमाया तथा हर प्रकार से उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखा । इस कथा ने सिदृ कर दिया कि बाबा के वचन सत्य निकले । उनका अपने भक्तों पर कितना स्नेह था, इसको तो छोड़ो । वे तो सब प्राणयों पर एक-सा प्रेम किया करते थे और उन्हें अपना ही स्वरुप समझते थे । यह निम्नलिखित कथा से भी विदित हो जायेगा ।


दो बकरे

एक बार जब बाबा लेंडी बाग से लौट रहे थे तो उन्होंने बकरों का एक झुंड आते देखा । उनमें से दो बकरों ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया । बाबा ने जाकर प्रेम-से उनका शरीर अपने हाथ से थपथपाया और उन्हें 32 रुपये में खरीद लिया । बाबा का यह विचित्र व्यवहार देखकर भक्तों को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि बाबा तो इस सौदे में ठगा गया है, क्योंकि एक बकरे का मूल्य उस समय 3-4 रुपये से अधिक न था और वे दो बकरे अधिक से अधिक आठ रुपये में प्राप्त हो सकते थे ।

उन्होंने बाबा को कोसना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु बाबा शान्त बैठे रहे । जब शामा और तात्या ने बकरे मोल लेने का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे कोई घर या स्त्री तो है नही, जिसके लिये मुझे पैसे इकट्ठे करके रखना है । फिर उन्होंने चार सेर दाल बाजार से मँगाकर उन्हें खिलाई । जब उन्हें खिला-पिला चुके तो उन्होंने पुनः उनके मालिक को बकरे लौटा दिये । तत्पश्चात् ही उन्होने उन बकरों के पूर्वजन्मों की कथा इस प्रकार सुनाई । शामा और तात्या, तुम सोचते हो कि मैं इस सौदे में ठगा गया हूँ । परन्तु ऐसा नही, इनकी कथा सुनो । गत जन्म में ये दोनों मनुष्य थे और सौभाग्य से मेरे निकट संपर्क में थे । मेरे पास बैठते थे । ये दोनों सगे भाई थे और पहले इनमें परस्पर बहुत प्रेम था, परन्तु बाद में ये एक दूसरे के कट्टर शत्रु हो गये । बड़ा भाई आलसी था, किन्तु छोटा भाई बहुत परिश्रमी था, जिसने पर्याप्त धन उपार्जन कर लिया था, जससे बड़ा भाई अपने छोटे भाई से ईर्ष्या करने लगा । इसलिये उसने छोटे भाई की हत्या करके उसका धन हड़पने की ठानी और अपना आत्मीय सम्बन्ध भूलकर वे एक दूसरे से बुरी तरह झगड़ने लगे । बड़े भाई ने अनेक प्रत्यन किये, परन्तु वह छोटे भाई की हत्या में असफल रहा । तब वे एक दूसरे के प्राणघातक शत्रु बन गये । एक दिन बड़े भाई ने छोटे भाई के सिर पर लाठी से प्रहार किया । तब बदले में छोटे भाई ने भी बड़े भाई के सिर पर कुल्हा़ड़ी चलाई और परिणामस्वरुप वहीं दोनों की मृत्यु हो गई । फिर अपने कर्मों के अनुसार ये दोनों बकरे की योनि को प्राप्त हुये । जैसे ही वे मेरे समीप से निकले तो मुझे उनके पूर्व इतिहास का स्मरण हो आया और मुझे दया आ गई । इसलिये मैंने उन्हें कुछ खिलाने-पिलाने तथा सुख देने का विचार किया । यही कारण है कि मैंने इनके लिये पैसे खर्च किये, जो तुम्हें मँहगे प्रतीत हुए है । तुम लोगों को यह लेन-देन अच्छा नहीं लगा, इसलिये मैंने उन बकरों को गड़ेरिये को वापस कर दिया है । सचमुच बकरे जैसे सामान्य प्राणियों के लिये भी बाबा को बेहद प्रेम था ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 47 - पुनर्जन्म


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वीरभद्रप्पा और चेनबसाप्पा (सर्प व मेंढ़क) की वार्ता ।

गत अध्याय में बाबा द्घारा बताई गई दो बकरों के पूर्व जन्मों की वार्ता थी । इस अध्याय मे कुछ और भी पूर्व जन्मों की स्मृतियों का वर्णन किया जाता है । प्रस्तुत कथा वीरभद्रप्पा और चेनवसाप्पा के सम्बन्ध में है ।


प्रस्तावना

हे त्रिगुणातीत ज्ञानावतार श्री साई । तुम्हारी मूर्ति कितनी भव्य और सुन्दर है । हे अन्तयार्मिन । तुम्हारे श्री मुख की आभा धन्य है । उसका क्षणमात्र भी अवलोकन करने से पूर्व जन्मों के समस्त दुःखों का नाश होकर सुख का द्घार खुल जाता है । परन्तु हे मेरे प्यारे श्री साई । यदि तुम अपने स्वभाववश ही कुछ कृपाकटाक्ष करो, तभी इसकी कुछ आशा हो सकती है । तुम्हारी दृष्टिमात्र से ही हमारे कर्म-बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते है और हमें आनन्द की प्राप्त हो जाती है । गंगा में स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है, परन्तु गंगामाई भी संतों के आगमन की सदैव उत्सुकतापूर्वक राह देखा करती है कि वे कब पधारें और मुझे अपनी चण-रज से पावन करें । श्री साई तो संत-चूडामणि है । अब उनके द्घारा ही हृदय पवित्र बनाने वाली यह कथा सुनो ।


सर्प और मेंढ़क

श्री साई बाबा ने कहा – एक दिन प्रातःकाल 8 बजे जलपान के पश्चात मैं घूमने निकला । चलते-चलते मैं एक छोटी सी नदी के किनारे पहुँचा । मैं अधिक थक चुका था, इस काण वहाँ बैठकर कुछ विश्राम करने लगा । कुछ देर के पश्चात् ही मैंने हाथ-पैर धोये और स्नान किया । तब कहीं मेरी थकावट दूर हुई और मुझे कुछ प्रसन्नता का अनुभव होने लगा । उस स्थान से एक पगडंडी और बैलगाड़ी के जाने का मार्ग था, जिसके दोनों ओर सघन वृक्ष थे । मलय-पवन मंद-मंद वह रहा था । मैं चिलम भर ही रहा था कि इतने में ही मेरे कानों में एक मेंढ़क के बुरी तरह टर्राने की ध्वनि पड़ी । मैं चकमक सुलगा ही रहा था कि इतने में एक यात्री वहाँ आया और मेरे समीप ही बैठकर उसने मुझे प्रणाम किया और घर पर पधारकर भोजन तथा विश्राम करने का आग्रह करने लगा । उसने चिलम सुलगा कर मेरी ओर पीने कि लिये बढ़ाई । मेंढ़क के टर्राने की ध्वनि सुनकर वह उसका रहस्य जानने के लिये उत्सुक हो उठा । मैंने उसे बतलाया कि एक मेंढक कष्ट में है, जो अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोग रहा है । पूर्व जन्म के कर्मों का फल इस जन्म में भोगना पड़ता है, अतः अब उसका चिल्लाना व्यर्थ है । एक कश लेकर उसने चिलम मेरी ओर बढ़ाई । थोड़ा देखूँ तो, आखिर बात क्या है । ऐसा कहकर वह उधर जाने लगा । मैंने उसे बतलाया कि एक बड़े साँप ने एक मेंढ़क को मुँह में दबा लिया है, इस कारण वह चिल्ला रहा है । दोनों ही पूर्व जन्म में बड़े दुष्ट थे और अब इस शरीर में अपने कर्मों का फल भोग रहे है । आगन्तुक ने घटना-स्थल पर जाकर देखा कि सचमुच एक बड़े सर्प ने एक बड़े मेंढ़क को मुँह में दबा रखा है ।

उसने वापस आकर मुझे बताया कि लगभग घड़ी-दो घड़ी में ही साँप मेंढ़क को निगल जायेगा । मैंने कहा – नहीं, यह कभी नहीं हो सकता, मैं उसका संरक्षक पिता हूँ और इस समय यहाँ उपस्थित हूँ । फिर सर्प की क्या सामर्थ्य है कि मेंढ़क को निगल जाय । क्या मैं व्यर्थ ही यहाँ बैठा हूँ । देखो, मैं अभी उसकी किस प्रकार रक्षा करता हूँ । दुबारा चिलम पीने के पश्चात् हम लोग उस स्थान पर गये । आगन्तुक डरने लगा और उसने मुझे आगे बढ़ने से रोका कि कहीं सर्प आक्रमण न कर दे । मैं उसकी बात की उपेक्षा कर आगे बढ़ा और दोनों से कहने लगा कि अरे वीरभद्रप्पा । क्या तुम्हारे शत्रु को पर्याप्त फल नहीं मिल चुका है, जो उसे मेंढ़क की और तुम्हें सर्प की योनि प्राप्त हुई है । अरे अब तो अपना वैमनस्य छोड़ो । यही बड़ी लज्जाजनक बात है । अब तो इस ईर्ष्या को त्यागो और शांति से रहो । इन शब्दों को सुनकर सर्प ने मेंढ़क को छोड़ दिया और शीघ्र ही नदी में लुप्त हो गया । मेंढ़क भी कूदकर भागा और झाड़ियों में जा छिपा ।

उस यात्री को बड़ा अचम्भा हुआ । उसकी समझ में न आया कि बाबा के शब्दों को सुनकर साँप ने मेंढ़क को क्यों छोड़ दिया और वीरभद्रप्पा व चेनबसाप्पा कौन थे । उनके वैमनस्य का कारण क्या था । इस प्रकार के विचार उसके मन में उठने लगे । मैं उसके साथ उसी वृक्ष के नीचे लौट आया और धूम्रपान करने के पश्चात उसे इसका रहस्य सुनाने लगा ः-

मेरे निवासस्थान से लगभग 4-5 मील की दूरी पर एक पवित्र स्थान था, जहाँ महादेव का एक मंदिर था । मंदिर अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण स्थिति में था, सो वहाँ के निवासियों ने उसका जीर्णोद्घार करने के हेतु कुछ चन्दा इकट्ठा किया । पर्याप्त धन एकत्रित हो गया और वहाँ नित्य पूजन की व्यवस्था कर मंदिर के निर्माण की योजनायें तैयार की गई । एक धनाढ़य व्यक्ति को कोषाध्यक्ष नियुकत कर उसको समस्त कार्य की देख-भाल का भार सौंप दिया गया । उसको कार्य, व्यय आदि का यथोचित विवरण रखकर ईमानदारी से सब कार्य करना था । सेठ तो एक उच्च कोटि का कंजूस था । उसने मरम्मत में अत्यन्त अल्पराशि व्यय की, इस कारण मंदिर का जीर्णोद्घार भी उसी अनुपात में हुआ । उसने सब राशि व्यय कर दी तथा कुछ अंश स्वयं हड़प लिया और उसने अपनी गाँठ से एक पाई भी व्यय न की । उसकी वाणी अधिक रसीली थी, इसलिये उसने लोगों को किसी प्रकार समझा-बुझा लिया और कार्य पूर्ववत् ही अधूरा रह गया । लोग फिर संगठित होकर उसके पास जाकर कहने लगे – सेठ साहेब । कृपया कार्य शीघ्र पूर्ण कीजिये । आपके प्रत्यन के अभाव में यह कार्य पूर्ण होना कदापि संभव नहीं । अतः आप पुनः योजना बनाइये । हम और भी चन्दा आपको वसूल करके देंगे । लोगों ने पुनः चन्दा एकत्रित कर सेठ को दे दिया । उसने रुपये तो ले लिये, परन्तु पूर्ववत् ही शांत बैठा रहा । कुछ दिनों के पश्चात् उसकी स्त्री को भगवान् शंकर ने स्वप्न दिया कि उठो और मंदिर पर कलश चढ़ाओ । जो कुछ भी तुम इस कार्य में व्यय करोगी, मैं उसका सौ गुना अधिक तुम्हें दूँगा । उसने यह स्वप्न अपने पति को सुना दिया । सेठ बयभीत होकर सोचने लगा कि यह कार्य तो ज्यादा रुपये खर्च कराने वाला है, इसलिये उसने यह बात हँसकर टाल दी कि यह तो एक निरा स्वप्न ही है और उस पर भी कहीं विश्वास किया जा सकता है । यदि ऐसा होता तो महादेव मेरे समक्ष ही प्रगट होकर यह बात मुझसे न कह देते । मैं क्या तुमसे अधिक दूर था । यह स्वप्न शुभदायक नहीं । यह तो पति-पत्नी के सम्बन्ध बिगाड़ने वाला है । इसलिये तुम बिलकुल शांत रहो । भगवान् को ऐसे द्रव्य की आवश्यकता ही कहाँ, जो दानियों की इच्छा के विरुदृ एकत्र किया गया हो । वे तो सदैव प्रेम के भूखे है तथा प्रेम और भक्तिपूर्वक दिये गये एक तुच्छ ताँबे का सिक्का भी सहर्ष स्वीकार कर लेते है । महादेव ने पुनः सेठानी को स्वप्न में कह दिया कि तुम अपने पति की व्यर्थ की बातों और उनके पास संचित धन की ओर ध्यान न दो और न उनसे मंदिर बनवाने के लिये आग्रह ही करो । मैं तो तुम्हारे प्रेम और भक्ति का ही भूखा हूँ । जो कुछ भी तुम्हारी व्यय करने की इच्छा हो, सो अपने पास से करो । उसने अपने पति से विचार-विनिमय करके अपने पिता से प्राप्त आभूषणों को विक्रय करे का निश्चय किया । तब कृपण सेठ अशान्त हो उठा । इस बार उसने भगवान् को भी धोखा देने की ठान ली । उसने कौड़ी-मोल केवल एक हजार रुपयों में ही अपनी पत्नी के समस्त आभूषण स्वयं खरीद डाले और एक बंजर भूमि का भाग मंदिर के निमित्त लगा दिया, जिसे उसकी पत्नी ने भी चुपचाप स्वीकार कर लिया । सेठ ने जो भूमि दी, वह उसकी स्वयं की न थी, वरन् एक निर्धन स्त्री दुबकी की थी, जो इसके यहाँ दो सौ रुपयों में गहन रखी हुई थी । दीर्घकाल तक वह ऋण चुकाकर उसे वापस न ले सकी, इसलिये उस धूर्त कृपण ने अपनी स्त्री, दुबकी और भगवान को धोखा दे दिया । भूमि पथरीली होने के कारण उसमें उत्तम ऋतु में भी कोई पैदावार न होती थी । इस प्रकार यह लेन-देन समाप्त हुआ । भूमि उस मंदिर के पुजारी को दे दी गई, जो उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुए ।

कुछ समय के पश्चात् एक विचित्र घटना घटित हुई । एक दिन बहुत जोरों से झंझावात आया और अति वृष्टि हुई । उस कृपण के घर पर बिजली गिरी और फलस्वरु पति-पत्नि दोनों की मृत्यु हो गई । दुबकी ने भी अंतिम श्वास छोड़ दी । अगले जन्म में वह कृपण मथुरा के एक ब्राहमण कुल में उत्पन्न हुआ और उसका नाम वीरभद्रप्पा रखा गया । उसकी धर्मपत्नी उस मंदिर के पुजारी के घर कन्या होकर उत्पन्न हुई और उसका नाम गौरी रखा गया । दुबकी पुरुष बनकर मंदिर के गुरव (सेवक) वंश में पैदा हुई और उसका नाम चेनबसाप्पा रखा गया । पुजारी मेरा मित्र था और बहुधा मेरे पास आता जाता, वार्तालाप करता और मेरे साथ चिलम पिया करता था । उसकी पुत्री गौरी भी मेरी भक्त थी । वह दिनोंदिन सयानी होती जा रही थी, जिससे उसका पिता भी उसके हाथ पीले करने की चिंता में रहता था । मैंने उससे कहा कि चिंता की कोई आवश्यकता नहीं, वर स्वयं तुम्हारे घर लड़की की खोज में आ जायेगा । कुछ दिनों के पश्चात् ही उसी की जाति का वीरभद्रप्पा नामक एक युवक भिक्षा माँगते-माँगते उसके घर पहुँचा । मेरी सम्मति से गौरी का विवाह उसके साथ सम्पन्न हो गया । पहले तो वह मेरा भक्त था, परन्तु अब वह कृतघ्न बन गया । इस नूतन जन्म में भी उसकी धन-तृष्णा नष्ट न हुई । उसने मुझसे कोई उघोग धंधा सुझाने को कहा, क्योंकि इस समय वह विवाहित जीवन व्यतीत कर रहा था । तभी एक विचित्र घटना हुई । अचानक ही प्रत्येक वस्तुओं के बाव ऊँचे चढ़ गये । गौरी के भाग्य से जमीन की माँग अधिक होने लगी और समस्त भूमि एक लाख रुपयों में आभूषणों के मूल्य से 100 गुना अधिक मूल्य में बिक गई । ऐसा निर्णय हुआ कि 50 हजार रुपये नगद और 2000 रुपये प्रतिवर्ष किश्त पर चुकता कर दिये जायेंगे । सबको यह लेनदेन स्वीकार था, परन्तु धन में हिससे के कारण उनमें परस्पर विवाद होने लगा । वे परामर्श लेने मेरे पास आये और मैंने कहा कि यह भूमि तो भगवान् की है, जो पुजारी को सौंपी गई थी । इसकी स्वामिनी गौरी ही है और एक पैसा भी उसकी इच्छा के विरुदृ खर्च करना उचित नहीं तथा उसके पति का इस पर कोई अधिकार नहीं है । मेरे निर्णय को सुनकर वीरभद्रप्पा मुझसे क्रोधित होकर कहने लगा कि तुम गौरी को फुसाकर उसका धन हड़पना चाहते हो । इन शब्दों को सुनकर मैं बगवत् नाम लेकर चुप बैठ गया । वीरभद्र ने अपनी स्त्री को पीटा भी । गौरी ने दोपहर के समय आकर मुझसे कहा कि आप उन लोगों के कहने का बुरा न मानें । मैं तो आपकी लड़की हूँ । मुझ पर कृपादृष्टि ही रखें । वह इस प्रकार मेरी सरण मे आई तो मैंने उसे वचन दे दिया कि मैं सात समुद्र पार कर भी तुम्हारी रक्षा करुँगा । तब उस रात्रि को गौरी को एक दृष्टांत हुआ । महादेव ने आकर कहा कि यह सब सम्पत्ति तुम्हारी ही है और इसमें से किसी को कुछ न दो । चेनबसाप्पा की यह सलाह से कुछ राशि मंदिर के कार्य के लिये खर्च करो । यदि और किसी भी कार्य में तुम्हे खर्च करने की इच्छा हो तो मसजिद में जाकर बाबा (स्वयं मैं) के परामर्श से करो । गौरी ने अपना दृष्टांत मुझे सुनाया और मैंने इस विषय में उचित सलाह भी दी । मैंने उससे कहा कि मूलधन तो तुम स्वयं ले लो और ब्याज की आधी रकम चेनबसाप्पा को दे दो । वीरभद्र का इसमें कोई सम्बन्ध नहीं है । जब मैं यह बात कर ही रहा था, वीरभद्र और चेनबसाप्पा दोनों ही वहाँ झगड़ते हुए आये । मैंने दोनों को शांत करने का प्रयत्न किया और गौरी को हुआ महादेव का स्वप्न भी सुनाया । वीरभद्र क्रोध से उन्हत हो गया और चेनबसाप्पा को टुकड़े-टुकड़े कर मार डालने की धमकी देने लगा । चेनबसाप्पा बड़ा डरपोक था । वह मेरे पैर पकड़कर रक्षा की प्रार्थना करने लगा । तब मैंने शत्रु के पाश से उसका छुटकारा करा दिया । कुछ समय पश्चात् ही दोनों की मृत्यु हो गई । वीरभद्र सर्प बना और चेनबसाप्पा मेंढ़क । चेनबासप्पा की पुकार सुनकर और अपने पूर्व वचन की स्मृति करके यहाँ आया और इस तरह से उसकी रक्षा कर मैंने अपने वचन पूर्ण किये । संकट के समय भगवान् दौड़कर अपने भक्त के पास जाते है । उसने मुझे यहाँ भेजकर चेनबसाप्पा की रक्षा कराई । यह सब ईश्वरीय लीला ही है ।


शिक्षा

इस कथा की यही शिक्षा है कि जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता है, जब तक कि भोग पूर्ण नहीं होते । पिछला ऋण और अन्य लोगों के साथ लेन-देन का व्यवहार जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक छुटकारा भी संभव नहीं है । धनतृष्णा मनुष्य का पतन कर देती है और अन्त में इससे ही वह विनाश को प्राप्त होता है ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 48 - भक्तों के संकट निवारण


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1.शेवड़े और
2.सपटणेकर की कथाएँ ।
अध्याय के प्रारम्भ करने से पूर्व किसी ने हेमाडपंत से प्रश्न किया कि साईबाबा गुरु थे या सदगुरु । इसके उत्तर में हेमाडपंत सदगुरु के लक्षणों का निम्नप्रकार वर्णन करते है ।


सदगुरु के लक्षण

जो वेद और वेदान्त तथा छहों शास्त्रों की शिक्षा प्रदान करके ब्रहृविषयक मधुर व्याख्यान देने में पारंगत हो तता जो अपने श्वासोच्छवास क्रियाओं पर नियंत्रण कर सहज ही मुद्रायें लगाकर अपने शिष्यों को मंत्रोपदेश दे निश्चित अवधि में यथोचित संख्या का जप करने का आदेश दे और केवल अपने वाकचातुर्य से ही उन्हें जीवन के अंतिम ध्येय का दर्शन कराता हो तथा जिसे स्वयं आत्मसाक्षात्कार न हुआ हो, वह सदगुरु नहीं वरन् जो अपने आचरणों से लौकिक व पारलौकिक सुखों से विरक्ति की भावना का निर्माण कर हमें आत्मानुभूति का रसास्वादन करा दे तथा जो अपने शिष्यों को क्रियात्मक और प्रत्यक्ष ज्ञान (आत्मानुभूति) करा दे, उसे ही सदगुरु कहते है । जो स्वयं ही आत्मसाक्षात्कार से वंचित है, वे भला अपने अनुयायियों को किस प्रकार अनुभूति कर सकते है । सदगुरु स्वप्न में भी अपने शिष्य से कोई लाभ या ससेवा-शुश्रूषा की लालसा नहीं करते, वरन् स्वयं उनकी सेवा करने को ही उघत करते है । उन्हें यह कभी भी भान नहीं होता है कि मैं कोई महान हूँ और मेरा शिष्य मुझसे तुच्छ है, अपितु उसे अपने ही सदृश (या ब्रहमस्वरुप) समझा करते है । सदगुरु की मुख्य विशेषता यही है कि उनके हृदय में सदैव परम शांति विघमान रहती है । वे कभी अस्थिर या अशांत नहीं होते और न उन्हं अपने ज्ञान का ही लेशमात्र गर्व होता है । उनके लिये राजा-रंक, स्वर्ग-अपवर्ग सब एक ही समान है ।

हेमाडपंत कहते है कि मुझे गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप श्री साईबाब सदृश सदगुरु के चरणों की प्राप्ति तथा उनके कृपापात्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । वे अपने यौवन काल में चिलम के अतिरिक्त कुछ संग्रह न किया करते थे । न उनके बाल-बच्चे तथा मित्र थे, न घरबार था और न उन्हें किसी का आश्रय प्राप्त था । 18 वर्ष की अवस्था से ही उनका मनोनिग्रह बड़ा विलश्रण था । वे निर्भय होकर निर्जन स्थानों में विचरण करते एवं सदा आत्मलीन रहते थे । वे सदैव भक्तों की निःस्वार्थ भक्ति देखकर ही उनकी इच्छानुसार आचरण किया करते थे । उनका कथना था कि मैं सदा भक्त के पराधीन रहता हूँ । जब वे शरीर में थे, उस समय भक्तों ने जो अनुभव किये, उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् आज भी जो उनके शरणागत होचुके है, उन्हें उसी प्रकार के अनुभव होते रहते है । भक्तों को तो केवल इतना ही यथेष्ठ है कि यदि वे अपने हृदय को भक्ति और विश्वास का दीपक बनाकर उसमें प्रेम की ज्योति प्रज्वलित करें तो ज्ञानज्योति (आत्मसाक्षात्कार) स्वयं प्रकाशित हो उठेगी । प्रेम के अभाव में शुष्क ज्ञान व्यर्थ है । ऐसा ज्ञान किसी को भी लाभप्रद नहीं हो सकता, प्रेमभाव में संतोष नहीं होता । इसलिये हमारा प्रेम असीम और अटूट होना चाहिये । प्रेम की कीर्ति का गुणगान कौन कर सकता है, जिसकी तुलना में समस्त वस्तुएँ तुच्छ जान पड़ती है । प्रेमरहित पठनपाठन सब निष्फल है । प्रेमांकुर के उदय होते ही भक्ति, वैराग्य, शांति और कल्याणरुपी सम्पत्ति सहज ही प्राप्त हो जाती है । जब तक किसी वस्तु के लिये प्रेम उत्पन्न नहीं होता, तब तक उसे प्राप्त करने की भावना ही उत्पन्न नहीं होती । इसलिये जहाँ व्याकुलता और प्रेम है, वहाँ भगवान् स्वयं प्रगट हो जाते है । भाव में ही प्रेम अंतर्निहित है और वही मोक्ष का कारणीभूत है । यदि कोई व्यक्ति कलुषित भाव से भी किसी सच्चे संत के चरण पकड़ ले तो यह निश्चित है कि वह अवश्य तर जायेगा । ऐसी ही कथा नीचे दर्शाई गई है ।


श्री शेवड़े

अक्कलकोट (सोलापुर जिला) के श्री. स्पटणेकर वकालत का अध्ययन कर रहे थे । एक दिन उनकी अपने सहपाठी श्री. शेवड़े से भेंट हुई । अन्य और भी विधार्थी वहाँ एकत्रित हुए और सब ने अपनी-अपनी अध्ययन संबंधी योग्यता का परस्पर परीक्षण किया । प्रश्नोत्तरों से विदित हो गया कि सब से कम अध्ययन श्री. शेवड़े का है और वे परीक्षा में बैठने के अयोग्य है । जब सब मित्रों ने मिलकर उनका उपहास किया, तब शेवड़े ने कहा कि यघपि मेरा अध्ययन अपूर्ण है तो भी मैं परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा । मेरे साईबाबा ही सबको सफलता देने वाले है । श्री. सपटणेकर को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने श्री. शेवड़े से पूछा कि ये साईबाबा कौन है, जिनका तुम इतना गुणगान कर रहे हो । उन्होंने उत्तर दिया कि वे एक फकीर है, जो शिरडी (अहमदनगर) की एक मसजिद में निवास करते है । वे महान सत्पुरुष है । ऐसे अन्य संत भी हो सकते है, परन्तु वे उनसे अद्गितीय है । जब तक पूर्व जन्म के शुभ संस्कार संचित न हो, तब तक उनसे भेंट होना दुर्लभ है । मेरी तो उन पर पूर्ण श्रद्घा है । उनके श्रीमुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं होते । उन्होंने ही मुझे विश्वास दिलाया है कि मैं अगले वर्ष परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा । मेरा भी अटल विश्वास है कि मैं उनकी कृपा से परीक्षा में अवश्य ही सफलता पाऊँगा । श्री. सपटणेकर को अपने मिक्ष के ऐसे विश्वास पर हँसी आ गई और साथ ही साथ श्री साईबाबा का भी उन्होंन उपहास किया । भविष्य में जब शेवड़े दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गये, तब सपटणेकर को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ ।


श्री. सपटणेकर

श्री. सपटणेकर परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् अक्कलकोट में रहले लगे और वहीं उन्हो्ने अपनी वकालत प्रारम्भ कर दी । दस वर्षों के पश्चात् सन् 1913 में उनके इकलौते पुक्ष की गले की बीमारी से मृत्यु हो गई, जिससे उनका हृदय विचलित हो उठा । मानसिक शांति प्राप्त करने हेतु उन्होंने पंढ़रपुर, गाणगापुर और अन्य तीर्थस्थानों की यात्रा की, परन्तु उनकी अशांति पूर्ववत् ही बनी रही । उन्होंने वेदांत का भी श्रवण किया, परन्तु वह भी व्यर्थ ही सिदृ हुआ । अचानक उन्हें शेवड़े के वचनों तथा श्री साईबाबा के प्रति उनके विश्वास की स्मृति हो आई और उन्होंने विचार किया कि मुझे भी शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करना चाहिये । वे अपने छोटे भाई पंड़ितराव के साथ शिरडी आये । बाबा के दर्शन कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । जब उन्होंने समीप जाकर नमस्कार करेक शुदृ भाना से श्रीफल भेंट किया तो बाबा तुरन्त क्रोधित हो उठे और बोले कि यहाँ से निकल जाओ । सपटणेकर का सिर झुक गया और वे कुछ हटकर पीछे बैठ गये । वे जानना चाहते थे कि किस प्रकार उनके समक्ष उपस्थित होना चाहिए । किसी ने उन्हें बाला शिम्प का नाम सुझा दिया । सपटणेकर उनके पास गये और उनसे सहायता करने की प्रार्थना करने लगे । तब वे दोनों बाबा का एक चित्र लेकर मसजिद को आये । बाला शिम्पी ने अपने हाथ में चित्र लेकर बाबा के हाथ में दे दिया और पूछा कि यह किसका चित्र है । बाबा ने सपटणेकर की ओर संकेत कर रहा कि यह तो मेरे यार का है । यह कहकर वे हंसने लगे और साथ ही सब भक्त मंडली भी हँसने लगी । बाला शिम्पी के इशारे पर जब सपटणेकर उन्हें प्रणाम करने लगे तो वे पुनः चिल्ला पड़े कि बाहर निकलो । सपटणेकर की समझ में नहीं आता था कि वे क्या करे । तब वे दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बाबा के सामने बैठ गये, परन्तु बाबा ने उन्हें तुरन्त ही बाहर निकलने की आज्ञा दी । वे दोनों बहुत ही निराश हुए । उनकी आज्ञा कौन टाल सकता था । आखिर सपटणेकर खिन्न-हृदय शिरडी से वापस चले आये । उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की कि हे साई । मैं आपसे दया की भक्षा माँगता हूँ । कम से कम इतना ही आश्वासन दे दीजिये कि मुझे भविष्य में कभी न कभी आपके श्री दर्शनों की अनुमति मिल जायेगी ।


श्रीमती सपटणेकर

एक वर्ष बीत गया, फिर भी उनके मन में शांति न आई । वे गाणगापुर गये, जहाँ उनके मन में और अधिक अशांति बढ़ गई । अतः वे माढ़ेगाँव विश्राम के लिये पहुँचे और वहाँ से ही काशी जाने का निश्चय किया । प्रस्थान करने के दो दिन पूर्व उनकी पत्नी को स्वप्न हुआ कि वह स्वप्न में एक गागर ले लक्कड़शाह के कुएँ पर जल भरने जा रही है । वहाँ नीम के नीचे एक फकीर बैठा है । सिर पर एक कपड़ा बँधा हुआ है । फकीर उसके पास आकर कहने लगा कि मेरी प्रिय बच्ची । तुम क्यों व्यर्थ कष्ट उठा रही हो । मैं तुम्हारी गागर निर्मल जल से भर देता हूँ । तब फकीर के भय से वह खाली गागर लेकर ही लौट आई । फकीर भी उसके पीछे-पीछे चला आया । इतने में ही घबराहट में उसकी नीद भंग हो गई और उसने आँखे खोल दी । यह स्वप्न उसने अपने पति को सुनाया । उन्होंने इस एक शुभ शकुन जाना और वे दोनों शिरडी को रवाना हो गये । जब वे मसजिद पहुँचे तो बाबा वहाँ उपस्थित न थे । वे लेण्डी बाग गये हुए थे । उनके लौटने की प्रतीक्षा में वे वहीं बैठे रहे । जब बाबा लौटे तो उन्हें देखकर उनकी पत्नी को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि स्वप्न में जिस फकीर के उसने दर्शन किये थे, उनकी आकृति बाबा से बिलकुल मिलती-जुलती थी । उसने अति आदरसहित बाबा को प्रणाम किया और वहीं बैठे-बैठे उन्हें निहारने लगी । उसका विनम्र स्वभाव देखकर बाबा अत्यन्त प्रसन्न हो गये । अपनी पदृति के अनुसार वे एक तीसरे व्यक्ति को अपने अनोखे ढंग से एक कहानी सुनाने लगे – मेरे हाथ, उदर, शरीर तथा कमर में बहुत दिनों से दर्द हुआ करता था । मैंनें अनेक उपचार किये, परन्तु मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा । मैं औषधियों से ऊब उठा, क्योंकि मुझे उनसे कोई लाभ न हो रहा था, परन्तु अब मुझे बड़ा अचम्भा हो रहा है कि मेरी समस्त पीड़ाये एकदम ही जाती रही । यघपि किसी का नाम नहीं लिया गया था, परन्तु यह चर्चा स्वयं श्रीमती सपटणेकर की थी । उनकी पीड़ा जैसा बाब ने अभी कहा, सर्वथा मिट गई और वे अत्यन्त प्रसन्न हो गई ।


संतति-दान

तब श्री. सपटणेकर दर्शनों के लिए आगे बढ़, परन्तु उनका पूर्वोक्त वचनों से ही स्वागत हुआ कि बाहर निकल जाओ । इस बार वे बहुत धैर्य और नम्रता धारण करके आये थे । उन्होंने कहा कि पिछले कर्मों के कारण ही बाबा मुझसे अप्रसन्न है और उन्होंने अपना चरित्र सुधारने का निश्चय कर लिया और बाबा से एकान्त में भेंट करके अपने पिछले कर्मों की क्षमा माँगने का निश्चय किया । उन्होंने वैसा ही किया भी और अब जब उन्होंने अपना मस्तक उनके श्रीचरमणों पर रखा तो बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया । अब सपटणेकर उनके चरण दबाते हुए बैठे ही थे कि इतने में एक गड़ेरिन आई और बाबा की कमर दबाने लगी । तब वे सदैव की भाँति एक बनिये की कहानी सुनाने लगे । जब उन्होंने उसके जीवन के अनेकों परिवर्तन तथा उसके इकलौते पुत्र की मृत्यु का हाल सुनाया तो सपटणेकर को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि जो कथा वे सुना रहे है, वह तो मेरी ही है । उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ कि उनको मेरे जीवन की प्रत्येक बात का पता कैसे चल गया । अब उन्हं विदित हो गया कि बाबा अन्तर्यामी है और सबके हृदय का पूरा-पूरा रहस्य जानते है । यह विचार उनके मन में आया ही था कि गड़ेरिन से वार्तालाप चालू रखते हुए बाबा सपटणेकर की ओर संकेत कर कहने लगे कि यह भला आदमी मुझ पर दोषारोपण करता है कि मैंने ही इसके पुत्र को मार डाला है । क्या मैं लोगों के बच्चों के प्राण-हरण करता हूँ । फिर ये महाशय मसजिद में आकर अब क्यों चीख-पुकार मचाते है । अब मैं एक काम करुँगा । अब मैं उसी बालक को फिर से इनकी पत्नी के गर्भ में ला दूँगा । - ऐसा कहकर बाबा ने अपना वरद हस्त सपटणेकर के सिर पर रखा और उसे सान्त्वना देते हुए काह कि ये चरण अधिक पुरातन तथा पवित्र है । जब तुम चिंता से मुक्त होकर मुझ पर पूरा विश्वास करोगे, तभी तुम्हें अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । सपटणेकर का हृदय गदरगद हो उठा । तब अश्रुधारा से उनके चरण धोकर वे अपने निवासस्थान पर लौट आये और फिर पूजन की तैयारी कर नैवेघ आदि लेकर वे सपत्नीक मसजिद में आये । वे इसी प्रकार नित्य नैवेघ चढ़ाते और बाबा से प्रसाद ग्रहण करते रहे । मसजिद में अपार भीड़ होते हुए भी वे वहाँ जाकर उन्हें बार-बार नमस्कार करते थे । एक दूसरे से सिर टकराते देखकर बाब ने उनसे कहा कि प्रेम तथा श्रद्घा द्घारा किया हुआ एक ही नमस्कार मुझे पर्याप्त है । उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी का उत्सव देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्हें बाबा ने पांडुरंग के रुप में दर्शन दिये ।

जब वे दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान करने लगे तो उन्होंने विचार किया कि पहले दक्षिणा में बाबा को एक रुपया दूँगा । यदि उन्होंने और माँगे तो अस्वीकार करने के बजाय एक रुपया और भेंट में चढ़ा दूँगा । फिर भी यात्रा के लिये शेष द्रव्यराशि पर्याप्त होगी । जब उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा को एक रुपया दक्षिणा दी तो बाबा ने भी उनकी इच्छा जानकर एक रुपया उनसे और माँगा । जब सपटणेकर ने उसे सहर्ष दे दिया तो बाबा ने भी उन्हें आर्शीवाद देकर कहाकि यह श्रीफल ले जाओ और इसे अपनी पत्नी की गोद में रखकर निश्चिंत होकर घर जाओं । उन्होंने वैसा ही किया और एक वर्ष के पश्चात ही उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । आठ मास का शिशु लेकर वह दम्पति फिर शिरडी को आये और बाबा के चरणों पर बालक को रखकर फिर इस प्रकार प्रर्थना करने लगे कि हे श्री साईनाथ । आपके ऋण हम किस प्रकार चुका सकेंगें । आपके श्री चरणों में हमारा बार-बार प्रणाम है । हम दीनों पर आप सदैव कृपा करते रहियेगा, क्योंकि हमारे मन में सोते-जागते हर समय न जाने क्या-क्या संकल्प-विकल्प उठा करते है । आपके भजन में ही हमारा मन मग्न हो जाये, ऐसा आर्शीवाद दीजिये ।

उस पुत्र का नाम मुरलीधर रखा गया । बाद में उनके दो पुत्र (भास्कर और दिनकर) और उत्पन्न हुए । इस प्रकार सपटणेकर दम्पति को अनुभव हो गया कि बाबा के वचन कभी असत्य और अपूर्ण नहीं निकले ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 49 - हरि कानोबा, सोमदेव स्वामी, नानासाहेब चाँदोरकर की कथाएँ ।


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प्रस्तावना

जब वेद और पुराण ही ब्रहमा या सदगुरु का वर्णन करने में अपनी असमर्थता प्रगट करते है, तब मैं एक अल्पज्ञ प्राणी अपने सदगुरु श्रीसाईबाबा का वर्णन कैसे कर सकता हूँ । मेरा स्वयं का तो यतह मत है कि इस विषय में मौन धारण करना ही अति उत्तम है । सच पूछा जाय तो मूक रहना ही सदगुरु की विमल पताकारुपी विरुदावली का उत्तम प्रकार से वर्णन करना है । परन्तु उनमें जो उत्तम गुण है, वे हमें मूक कहाँ रहने देत है । यदि स्वादिष्ट भोजन बने और मित्र तथा सम्बन्धी आदि साथ बैठकर न खायेंतो वह नीरस-सा प्रतीत होता है और जब वही भोजन सब एक साथ बैठकर खाते है, तब उसमें एक विशेष प्रकार की सुस्वादुता आ जाती है । वैसी ही स्थिति साईलीलामृत के सम्बन्ध में भी है । इसका एकांत में रसास्वादन कभी नहीं हो सकता । यदि मित्र और पारिवारिक जन सभी मिलकर इसका रस लें तो और अधिक आनन्द आ जाता है । श्री साईबाबा स्वयं ही अंतःप्रेरणा कर अपनी इच्छानुसार ही इन कथाओं को मुझसे वर्णित कर रहे है । इसलिये हमारा तो केवल इतना ही कर्तव्य है कि अनन्यभाव से उनके शरणागत होकर उनका ही ध्यान करें । तप-साधन, तीर्थ यात्रा, व्रत एवं यज्ञ और दान से हरिभक्ति श्रेष्ठ है और सदगुरु का ध्यान इन सबमें परम श्रेष्ठ है । इसलिये सदैव मुख से साईनाम का स्मरण कर उनके उपदेशों का निदिध्यासन एवं स्वरुप का चिनत्न कर हृदय में उनके प्रति सत्य और प्रेम के भाव से समस्त चेष्टाएँ उनके ही निमित्त करनी चाहिये । भवबन्धन से मुक्त होने का इससे उत्तम साधन और कोई नहीं । यदि हम उपयुक्त विधि से कर्म करते जाये तो साई को विवश होकर हमारी सहायता कर हमें मुक्ति प्रदान करनी ही पड़ेगी । अब इस अध्याय की कथा श्रवण करें ।


हरि कानोबा

बम्बई के हरि कानोबा नामक एक महानुभाव ने अपने कई मित्रों और सम्बन्धियों से साई बाबा की अनेक लीलाऐं सुनी थी, परन्तु उन्हें विश्वास ही न होता था, क्योंकि वे संशयालु प्रकृति के व्यक्ति थे । अविश्वास उनके हृदयपटल पर अपना आसन जमाये हुये था । वे स्वयं बाबा की परीक्षा करने का निश्चय करके अपने कुछ मित्रों सहित बम्बई से शिरडी आये । उन्होंने सिर पर एक जरी की पगड़ी और पैरों में नये सैंडिल पहिन रखे थे । उन्होंने बाबा को दूर से ही देखकर उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम तो करना चाहा, परन्तु उनके नये सैंडिल इस कार्य में बाधक बन गये । उनकी समझ में नही आ रहा था कि अब क्या किया जाय । तब उन्होंने अपने सैंडिल मंडप क एक सुरक्षित कोने में रखे और मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । उनका ध्यान सैंडिलों पर ही लगा रहा । उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक बाबा को प्रणाम किया और उनसे प्रसाद और उदी प्राप्त कर लौट आये । पर जब उन्होंने कोने में दृष्टि डाली तो देखा कि सैंडिल तो अंतद्घार्न हो चुके है । पर्याप्त छानबीन भी व्यर्थ हुई और अन्त में निराश होकर वे अपने स्थान पर वापस आ गये ।

स्नान, पूजन और नैवेघ आदि अर्पित करक वे भोजन करने को तो बैठे, परन्तु वे पूरे समय तक उन सैंडिलों के चिन्तन में ही मग्न रहे । भोजन कर मुँह-हाथधोकर जब वे बाहर आये तो उन्होंने एक मराठा बालक को अपनी ओर आते देखा, जिसके हाथ में डण्डे के कोने पर एक नये सैंडिलों का जोड़ा लटका हुआ था । उस बालक ने हाथ धोने के लिये बाहर आने वाले लोगों से कहा कि बाबा ने मुझे यह डण्डा हाथ में देकर रास्तों में घूम-गूम कर हरि का बेटा जरी का फेंटा की पुकार लगाने को कहा है तथा जो कोई कहे कि सैंडिल हमारे है, उससे पहले यह पूछना कि क्या उसका नाम हरि और उसके पिता का क (अर्थात् कानोबा) है । साथ ही यह भी देखना कि वह जरीदार साफा बाँधे हुए है या नही, तब इन्हें उसे दे देना । बालक का कथन सुनकर हरि कानोबा को बेहद आनन्द व आश्चर्य हुआ । उन्होंने आगे बढ़कर बालक से कहा कि ये हमारे ही सैंडिल है, मेरा ही नाम हरि और मैं ही क (कानोबा) का पुत्र हूँ । यह मेरा जरी का साफा देखो । बालक सन्तुष्ट हो गया और सैंडिल उन्हें दे दी । उन्होंने सोचा कि मेरी जरी का साफा देखो । बालक सन्तुष्ट हो गया और सैंडिल उन्हें दे दी । उन्होंने भी सोचा कि मेरी जरीदार पगड़ी तो सब को ही दिख रही थी । हो सकता है कि बाबा की भी दृष्टि में आ गई हो । परन्तु यह मेरी शिरडी-यात्रा का प्रथम अवसर है, फिर बाबा को यह कैसे विदित हो गया कि मेरा ही नाम हरि है और मेरे पिता का कानोबा । वहतो केवल बाबा की परीक्षार्थ वहाँ आया था । उसे इस घटना से बाबा की महानता विदित हो गई । उसकी इच्छा पूर्ण हो गई और वह सहर्ष घर लौट गया ।


सोमदेव स्वामी

अब एक दूसरे संशयालु व्यक्ति की कथा सुनिये, जो बाबा की परीक्षा करने आया था । काकासाहेब दीक्षित के भ्राता श्री. भाईजी नागपुर में रहते थे । जब वे सन् 1906 में हिमालय गये थे, तब उनका गंगोत्री घाटी के नीचे हरिद्घार के समीप उत्तर काशी में एक सोमदेव स्वामी से परिचय हो गया । दोनों ने एक दूसरे के पते लिख लिये । पाँच वर्ष पश्चात् सोमदेव स्वामी नागपुर में आये और भाईजी के यहां ठहरे । वहाँ श्री साईबाबा की कीर्ति सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई तथा वहाँ श्री साईबाबा के दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा हुई । मनमाड और कोपरगाँव निकल जाने पर वे एक ताँगे में बैठकर शिरडी को चल पड़े । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्होंने दूर से ही मसजिद पर दो ध्वज लहरते देखे । सामान्यतः देखने में आता है कि भिन्न-भिन्न सन्तों का बर्ताव, रहन-सहन और बाहृ सामग्रियाँ प्रायः भिन्न प्रकार की ही रहा करती है । परन्तु केवल इन वस्तुओं से ही सन्तों की योग्यता का आकलन कर लेना बड़ी भूल है । सोमदेव स्वामी कुछ भिन्न प्रकृति के थे । उन्होंने जैसे ही ध्वजों को लहराते देखा तो वे सोचने लगे कि बाबा सन्त होकर इन ध्वजों में इतनी दिलचस्पी क्यों रखते है । क्या इससे उनका सन्तपन प्रकट होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह सन्त अपनी कीर्ति का इच्छुक है । अतएव उन्होंने शिरडी जाने का विचार त्याग कर अपने सहयात्रियों से कहा कि मैं तो वापस लौटना चाहता हूँ । तब वे लोग कहने लगे कि फिर व्यर्थ ही इतनी दूर क्यों आये । अभी केवल ध्वजों को देखकर तुम इतने उद्गिग्न हो उठे हो तो जब शिरडी में रथ, पालकी, घोड़ा और अन्य सामग्रियाँ देखोगे, तब तुम्हारी क्या दशा होगी । स्वामी को अब और भी अधिक घबराहट होने लगी और उसने काह कि मैंने अनेक साधु-सन्तों के दर्शन किये है, परन्तु यह सन्त कोई बिरला ही है, जो इस प्रकार ऐश्वर्य की वस्तुएँ संग्रह कर रहा है । ऐसे साधु के दर्शन न करना ही उत्तम है, ऐसा कहकर वे वापस लौटने लगे । तीर्थयात्रियों ने प्रतिरोध करते हुए उन्हें आगे बढ़ने की सलाह दी और समझाया कि तुम यह संकुचित मनोवृत्ति छोड़ दो । मसजिद में जो साधु है, वे इन ध्वजाओं और अन्य सामग्रियों या अपनी कीर्ति का स्वप्न में भी सोचविचार नहीं करते । ये सब तो उनके भक्तगण प्रेम और भक्ति के कारण ही उनको भेंट किया करते है । अन्त में वे शडी जाकर बाबा के दर्शन करने को तैयार हो गये । मसजिद के मंडप में पहुँच कर तो वे द्रवित हो गये । उनकी आँखों से अश्रुधारा बहले लगी और कंठ रुँध गया । अब उनके सब दूषित विचार हवा हो गये और उन्हें अपने गुरु के शब्दों की स्मृति हो आई कि मन जहाँ अति प्रसन्न औ आकर्षित हो जाय, उसी स्थान को ही अपना विश्रामधाम समझना । वे बाबा की चरण-रज में लोटना चाहते थे, परन्तु वे उनके समीप गये तो बाबा एकदम क्रोधित होकर जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगे कि हमारा सामान हमारे ही साथ रहने दो, तुम अपने घर वापस लौट जाओ । सावधान । यदि फिर कभी मसजिद की सीढ़ी चढ़े तो । ऐसे संत के दर्शन ही क्यों करना चाहिये, जो मसजिद पर ध्वजायें लगाकर रखे । क्या ये सन्तपन के लक्षण है । एक क्षण भी यहाँ न रुको । अब उसे अनुभव हो गया कि बाबा ने अपने हृदय की बात जान ली है और वे कितने सर्वज्ञ है । उसे अपनी योग्यता पर हँसी आने लगी तथा उसे पता चल गया कि बाबा कितने निर्विकार और पवित्र है । उसने देखा कि वे किसी को हृदय से लगाते और किसी को हाथ से स्पर्श करते है तथा किसी को सान्तवना देकर प्रेमदृष्टि से निहारते है । किसी को उदी प्रसाद देकर सभी प्रकार से भक्तों को सुख और सन्तोष पहुँचा रहे है तो फिर मेरे साथ ऐसा रुक्ष बर्ताव क्यों । अधिक विचार करने पर वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि इसका कारण मेरे आन्तरिक विचार ही थे और इससे शिक्षा ग्रहण कर मुझे अपना आचरण सुधारना चाहिये । बाबा का क्रोध तो मेरे लिये वरदानस्वरुप है । अब यह कहना व्यर्थ ही होगा, कि वे बाबा की शरण मे आ गये और उनके एक परम भक्त बन गये ।


नानासाहेब चाँदोरकर

अन्त में नानासाहेब चाँदोरकर की कथा लिखकर हेमाडपंत ने यह अध्याय समाप्त किया है । एक समय जब नानासाहेब म्हालसापति और अन्य लोगों के साथ मसजिद में बैठे हुए थे तो बीजापुर से एक सम्भ्रान्त यवन परिवार श्री साईबाबा के दर्शनार्थ आया । कुलवन्तियों की लाजरक्षण भावना देखकर नानासाहेब वहाँ से निकल जाना चाहते थे, परन्तु बाबा ने उन्हे रोक लिया । स्त्रियाँ आगे बढ़ी और उन्होंने बाबा के दर्शन किये । उनमें से एक महिला ने अपने मुँह पर से घूँघट हटाकर बाबा के चरणों में प्रणाम कर फिर घूँघट डाल लिया । नानासाहेब उसके सौंद4य से आक4षित हो गये और एक बार पुनः वह छटा देखने को लालायित हो उठे । नाना के मन की व्यथा जानकर उन लोगों के चले जाने के पश्चात् बाबा उनसे कहने लगे कि नाना, क्यों व्यर्थ में मोहित हो रहे हो । इन्द्रयों को अपना कार्य करने दो । हमें उनके कार्य में बाधक न होना चाहिये । भगवान् ने यह सुन्दर सृष्टि निर्माण की है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उसके सौन्दर्य की सराहना करें । यह मन तो क्रमशः ही स्थिर, होता है और जब सामने का द्घार खुला है, तब हमें पिछले द्घार से क्यों प्रविष्ट होना चाहिये । चित्त शुदृ होते ही फिर किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता । यदि हमारे मन में कुविचार नहीं है तो हमें किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं । नेत्रों को अपना कार्य करने दो । इसके लिये तुम्हें लज्जित तथा विचलित न होना चाहिये । उस समया शामा भी वही थे । उनकी समझ में न आया कि आखिर बाबा के कहने का तात्पर्य क्या है । इसलिये लौटते समय इस विषय में उन्होंने नाना से पूछा । उस परम सुन्दरी के सौन्दर्य को देखकर जिस प्रकार वे मोहित हुए तता यह व्यथा जानकर बाबा ने इस विषय पर जो उपदेश उन्हें दिये, उन्होंने उसका सम्पूर्ण वृतान्त उनसे कहकर शामा को इस प्रकार समझाया – हमारा मन स्वभावतः ही चंचल है, पर हमें उसे लम्पट न होने देना चाहिये । इन्द्रयाँ चाहे भले ही चंचल हो जाये, परन्तु हमें अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण रखकर उसे अशांत न होने देना चाहिये । इन्द्रियाँ तो अपने विषयपदार्थों के लिये सदैव चेष्टा कि यही करती है, पर हमें उनके वशीभूत होकर उनके इच्छित पदार्थों के समीप न जाना चाहिये । क्रमशः प्रयत्न करते रहने से इस चंचलता को नियंत्रित किया जा सकता है । यघपि उन पर पूर्ण नियंत्रण सम्भव नहीं है तो भी हमें उनके वशीभूत न होना चाहिये । प्रसंगानुसार हमें उनका वास्तविक रुप से उचित गति-अवरोध करना चाहिये । सौन्दर्य तो आँखें सेंकने का विषय है, इसलिये हमें निडर होकर सुन्दर पदार्थों की ओर देखना चाहिये । यदि हममें किसी प्रकार के कुविचार न आवे तो इसमें लज्जा और भय की आवश्यकता ही क्या है । यदि मन को निरिच्छ बनाकर ईश्वर के सौन्दर्य को निहारो तो इन्द्रियाँ सहज और स्वाभाविक रुप से अपने वश में आ जायेगी और विषयानन्द लेते समय भी तुम्हें ईश्वर की स्मृति बनी रहेगी । यदि उसे इन्द्रियों के पीछे दौड़ने तथा उनमें लिप्त रहने दोगे तो तुम्हारा जन्म-मृत्यु के पाश से कदापि छुटकारा न होगा । विषयपदार्थ इंद्रियों को सदा पथभ्रष्ट करने वाले होते है । अतएव हमें विवेक को सारथी बनाकर मन की लगाम अपने हाथ में लेकर इन्द्रिय रुपी घोड़ों को विषयपदार्थों की ओर जाने से रोक लेना चाहिये । ऐसा विवेक रुपी सारथी हमें विष्णु-पद की प्राप्ति करा देगा, जो हमारा यथार्थ में परम सत्य धाम है और जहाँ गया हुआ प्राणी फिर कभी यहाँ नहीं लौटता ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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अध्याय 50 - काकासाहेब दीक्षित, श्री. टेंबे स्वामी और बालाराम धुरन्धर की कथाएँ ।


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मूल सच्चिरत्र के अध्याय 39 और 50 को हमने एक साथ सम्मिलित कर लिखा है, क्योंकि इन दोनों अध्यायों का विषय प्रायः एक-सा ही है ।


प्रस्तावना

उन श्री साई महाराज की जय हो, जो बक्तों के जीवनाधार एवं सदगुरु है । वे गीताधर्म का उपदेश देकर हमें शक्ति प्रदान कर रहे है । हे साई, कृपादृष्टि से देखकर हमें आशीष दो । जैसे मलयगिरि में होनेवाला चन्दनवृक्ष समस्त तापों का हरण कर लेता है अथवा जिस प्रकार बादल जलवृष्टि कर लोगों को शीतलता और आनन्द पहुँचाते है या जैसे वसन्त में खिले फूल ईश्वरपूजन के काम आते है, इसी प्रकार श्री साईबाबा की कथाएँ पाठकों तथा श्रोताओं को धैर्य एवं सान्त्वना देती है । जो कथा कहते या श्रवण करते है, वे दोनों ही धन्य है, क्योंकि उनके कहने से मुख तथा श्रवण से कान पवित्र हो जाते है ।

यह तो सर्वमान्य है कि चाहे हम सैकड़ों प्रकार की साधनाएँ क्यों न करे, जब तक सदगुरु की कृपा नहीं होती, तब तक हमेंअपने आध्यात्मिक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसी विषय में यह निम्नलिखित कथा सुनिये ः-


काकासाहेब दीक्षित (1864-1926)

श्री हरि सीताराम उपनाम काकासाहेब दीक्षित सन् 1864 में वड़नगर के नागर ब्राहमण कुल में खणडवा में पैदा हुए थे । उनकी प्राथमिक शिक्षा खण्डवा और हिंगणघाट में हुई । माध्यमिक सिक्षा नागुर में उच्च श्रेणी में प्राप्त कने के बाद उन्होंने पहले विल्सन तथा बाद में एलफिन्स्टन काँलेज में अध्ययन किया । सन् 1883 में उन्होंने ग्रेज्युएट की डिग्री लेकर कानूनी (L. L. B.) और कानूनी सलाहकार (Solicitor) की परीक्षाएँ पास की और फिर वे सरकारी सालिसिटर फर्म-मेसर्स लिटिल एण्ड कम्पनी में कार्य करने लगे । इसके पश्चात उन्होंने स्वतः की एक साँलिसिटर फर्म चालू कर दी ।

सन् 1909 के पहले तो बाबा की कीर्ति उनके कानों तक नहीं पहुँची थी, परन्तु इसके पश्चात् वे शीघ्र ही बाबा के परम भक्त बन गये । जब वे लोनावला में निवास कर रहे थे तो उनकी अचानक भेंट अपने पुराने मित्र नानासाहेब चाँदोरकर से हुई । दोनों ही इधर-उधर की चर्चाओं में समय बिताते थे । काकासाहेब ने उन्हें बताया कि जब वे लन्दन में थे तो रेलगाड़ी पर चढ़ते समय कैसे उनका पैर फिसला तथा कैसे उसमें चोट आई, इसका पूर्ण विवरण सुनाया । काकासाहेब ने आगे कहा कि मैंने सैकड़ो उपचार किये, परन्तु कोई लाभ न हुआ । नानासाहेब ने उनसे कहा कि यदि तुम इस लँगड़ेपन तथा कष्ट से मुक्त होना चाहते हो तो मेरे सदगुरु श्री साईबाबा की शरण में जाओ । उन्होंने बाबा का पूरा पता बताकर उनके कथन को दोहराया कि मैं अपने भक्त को सात समुद्रों के पास से भी उसी प्रकार खींच लूँगा, जिस प्रकार कि एक चिड़िया को जिसका पैर रस्सी से बँधा हो, खींच कर अपने पास लाया जाता है । उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि तुम बाबा के निजी जन न होगे तो तुम्हें उनके प्रति आकर्षण भी न होगा और न ही उनके दर्शन प्राप्त होंगे । काकासाहेब को ये बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा, वे शिरडी जाकर बाबा से प्रार्थना करेंगे कि शारीरिक लँगड़ेपन के बदले उनके चंचल मन को अपंग बनाकर परमानन्द की प्राप्त करा दे ।

कुछ दिनों के पश्चात् ही बम्बई विधान सभा (Legislative Assembly) के चुनाव में मत प्राप्त करने के सम्बन्ध में काकासाहेब दीक्षित अहमदनगर गये और सरदार काकासाहेब मिरीकर के यहां ठहरे । श्री. बालासाहेब मिरीकर जो कि कोपरगाँव के मामलतदार तथा काकासाहेब मिरीकर के सुपत्र थे, वे भी इसी समय अश्वप्रदर्शनी देखने के हेतु अहमदनगर पधारे थे । चुनाव का कार्य समाप्त होने के पश्चात काकासाहेब दीक्षित शिरडी जाना चाहते थे । यहाँ पिता और पुत्र दोनों ही घर में विचार कर रहे थे कि काकासाहेब के साथ भेजने के लिये कौन सा व्यक्ति उपयुक्त होगा और दूसरी ओर बाबा अलग ही ढंग से उन्हें अपने पास बुलाने का प्रबन्ध कर रहे थे । शामा के पास एक तार आया कि उनकी सास की हालत अधिक शोचनीय है और उन्हें देखने को वे शीघ्र ही अहमदनगर को आये । बाबा से अनुमति प्राप्त कर शामा ने वहां जाकर अपनी सास को देखा, जिनकी स्थिति में अब पर्याप्त सुधार हो चुका था । प्रदर्शनी को जाते समय नानासाहेब पानसे तथा अप्पासाहेब दीक्षित से भेंट करने तथा उन्हें अपने साथ शिरडी ले जाने को कहा । उन्होंने शामा के आगमन की सूचना काकासाहेब दीक्षित और मिरीकर को भी दे दी । सन्ध्या समय शामा मिरीकर के घर आये । मिरीकर ने शामा का काकासाहेब दीक्षित से परिचय कर दिया और फिर ऐसा निश्चित हुआ कि काकासाहेब दीक्षित उनके साथ रात 10 बजे वाली गाड़ी से कोपरगाँव को रवाना हो जाये । इस निश्चय के बाद ही एक विचित्र घटना घटी । बालासाहेब मिरीकर ने बाबा के एक बड़े चित्र पर से परदा हटाकर काकासाहेब दीक्षित को उनके दर्शन कराये तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिनके दर्शनार्थ मैं शिरडी जाने वाला हूँ, वे ही इस चित्र के रुप में मेरे स्वागत हेतु यहाँ विराजमान है । तब अत्यन्त द्रवित होकर वे बाबा की वन्दना करने लगे । यह चित्र मेघा का था और काँच लगाने के लिये मिरीकर के पास आया था । दूसरा काँच लगवा कर उसे काकासाहेब दीक्षित तथा शामा के हाथ वापस शिरडी भेजने का प्रबन्ध किया गया । 10 बजे से पहले ही स्टेशन पर पहुँचकर उन्होंने द्घितीय श्रेणी का टिकट ले लिया । जब गाड़ी स्टेशन पर आई तो द्घितीय श्रेणी का डिब्बा खचाखच भरा हुआ था । उसमें बैठने को तिलमात्र भी स्थान न था । भाग्यवश गार्डसाहेब काकासाहेब दीक्षित की पहिचान के निकल आये और उन्होंने इन दोनों को प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा दिया । इस प्रकार सुविधापू4वक यात्रा करते हुए वे कोपरगाँव स्टेशन पर उतरे । स्टेशन पर ही शिरडी को जाने वाले नानासाहेब चाँदोरकर को देखकर उनके हर्ष का पारावार न रहा । शिरडी पहुँचकर उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । तब बाबा कहने लगे कि मैं बड़ी देर से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर राह था । शामा को मैंने ही तुम्हें लाने के लिये भेज दिया था । इसके पश्चात् काकासाहेब ने अनेक वर्ष बाबा की संगति में व्यतीत किये । उन्होंने शिरडी में एक वाड़ा (दीक्षित वाडा) बनवाया, जो उनका प्रायः स्थायी घर हो गया । उन्हें बाबा से जो अनुभव प्राप्त हुए, वे सब स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दिये जा रहे है । पाठकों से प्रार्थना है कि वे श्री साईलीला पत्रिका के विशेषांक (काकासाहेब दीक्षित) भाग 12 के अंक 6-9 तक देखे । उनके केवल एक दो अनुभव लिखकर हम यह कथा समाप्त करेंगे । बाबा ने उन्हें आश्वासन दिया था कि अनत समय आने पर बाबा उन्हें विमान में ले जायेंगे, जो सत्य निकला । तारीख 5 जुलाई, 1926 को वे हेमाडपंत के साथ रेल से यात्रा कर रहे थे । दोनों में साईबाबा के विषय में बाते हो रही थी । वे श्री साईबाबा के ध्यान में अधिक तल्लीन हो गये, तभी अचानक उनकी गर्दन हेमाडपंत के कन्धे से जा लगी । और उन्होंने बिना किसी कष्ट तथा घबराहट के अपनी अंतिम श्वास छो़ड़ दी ।


श्री. टेंबे स्वामी

अब हम द्घितीय कथा पर आते है, जिससे स्पष्ट होता है कि सन्त परस्पर एक दूसरे को किस प्रकार भ्रतृवत् प्रेम किया करते है । एक बार श्री वासुदेवानन्द सरस्वती, जो श्री. टेंबे स्वामी के नाम से प्रसिदृ है, ने गोदावरी के तीर पर रामहेन्द्री में आकर डेरा डाला । वे भगवान दत्तात्रेय के कर्मकांडी, ज्ञानी तात योगी भक्त थे । नाँदेड़ (निजाम स्टेट) के एक वकील अपने मित्रों के सहित उनसे भेंट करने आये और वार्तालाप करते-करते श्री साईबाबा की चर्चा भी निकल पड़ी । बाबा का नाम सुनकर स्वामी जी ने उन्हें करबदृ प्रणाम किया और पुंडलीकराव (वकील) को एक श्रीफल देकर उन्होंने कहा कि तुम जाकर मेरे भ्राता श्री साई को प्रणाम कर कहना कि मुझे न बिसरे तथा सदैव मुझ पर कृपा दृष्टि रखें । उन्होंने यह भी बतलाया कि सामान्यतः एक स्वामी दूसरे को प्रणाम नहीं करता, परन्तु यहाँ विशेष रुप से ऐसा किया गया है । श्री. पुंडलीकराव ने श्रीफल लेकर कहा कि मैं इसे बाबा को दे दूँगा तथा आपका सन्देश भी उचित था । स्वामी ने बाबा को जो भाई शब्द से सम्बोधित किया था, वह बिकुल ही उचित था । उधर स्वामी जी अपनी कर्मकांडी पदृति के अनुसार दिनरात अग्नहोत्र प्रज्वलित रखते थे और इधर बाबा की धूनी दिन रात मसजिद में जलती रहती थी

एक मास के पश्चात ही पुंडलीकराव अन्य मित्रों सहित श्रीफल लेकर शिरडी को रवाना हुये । जब वे मनमाड पहुँचे तो प्यास लगने के कारम एक नाले पर पानी पीने गये । खाली पेट पानी न पीना चाहिये, यह सोचकर उन्होंने कुछ चिवड़ा खाने को निकाल, जो खाने में कुछ अधिक तीखा-सा प्रतीत हुआ । उसका तीखापन कम करने के लिये किसी ने नारियल फोड़ कर उसमें खोपरा मिला दिया और इस तरह उन लोगों ने चिवड़ा स्वादिष्ट बनाकर खाया । अभाग्यवश जो नारियल उनके हाथ से फूटा, वह वही था, जो स्वामीजी ने पुंजलीकराव को भेंट में देने को दिया था । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्हें नारियल की स्मृति हो आई । उन्हें यह जानकर बड़ा ही दुख हुआ कि भेंट स्वरुप दिये जाने वाला नारियल ही फोड़ दया गया है । डरते-डरते और काँपते हुए वे शिरडी पहुँचे और वहाँ जाकर उन्होंने बाबा के दर्शन किये । बाबा को तो यहाँ नारियल के सम्बन्ध में स्वामी से बेतार का तार प्राप्त हो चुका था । इसीलिये उन्होंने पहले से ही पुंडलीकराव से प्रश्न किया कि मेरे भाई की भेजी हुई वस्तु लाओ । उन्होंने बाबा के चरण पकड़ कर अपना अपराध स्वीकार करते हुये अपनी चूक के लिये उनसे क्षमा याचना की । वे उसके बदले में दूसरा नारियल देने को तैयार थे, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए उसे अस्वीकार कर दिया कि उस नारियल का मूल्य इस नारियल से कई गुना अधिक था और उसकी पूर्ति इस साधारण नारियल से नहीं हो सकती । फिर वे बोले कि अब तुम कुछ चिन्ता न करो । मेरी ही इच्छा से वह नारियल तुम्हें दिया गया तथा मार्ग में फोड़ा गया है । तुम स्वयं में कर्तापन की भावना क्यों लाते हो । कोई भी श्रेष्ठ या कनिष्ठ कर्म करते समय अपने को कर्ता न जानकर अभिमान तता अहंकार से परे होकर ही कार्य करो, तभी तुम्हारी द्रुत गति से प्रगति होगी । कितना सुन्दर उनका यह आध्यात्मिक उपदेश था ।


बालाराम धुरन्धर

सान्ताक्रूज, बम्बई के श्री. बालाराम धुरन्धर प्रभु जाति के एक सज्जन थे । वे बम्बई के उच्च न्यायालय में एडवोकेट थे तथा किसी समय शासकीय विधि विघालय (Govt. Law School) और बम्बई के प्राचार्य (Principal) भी थे । उनका सम्पूर्ण कुटुम्ब सात्विक तथा धार्मिक था । श्री बालाराम ने अपनी जाति की योग्य सेवा की और इस सम्बन्ध में एक पुस्तक भी प्रकाशित कराई । इसके पश्चात् उनका ध्यान आध्यात्मिक और धार्मिक विषयों पर गया । उन्होंने ध्यानपूर्वक गीता, उसकी टीका ज्ञानेश्वरी तथा अन्य दार्शनिक ग्रन्थों पर अध्ययन किया । वे पंढरपुर के भगवान विठोबा के परम भक्त ते । सन् 1912 में उन्हें श्री साईबाबा के दर्शनों का लाभ हुआ । छः मास पूर्व उनके भाई बाबुलजी और वामनराव ने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये थे और उन्होंने घर लौटकर अपने मधुर अनुभव भी श्री. बालाराम व परिवार के अन्य लोगों को सुनाये । तब सब लोगों ने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । यहाँ शिरडी में उनके पहुँचने के पूर्व ही बाबा ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि आज मेरे बहुत से दरबारीगण आ रहे है । अन्य लोगों द्घारा बाबा के उपरोक्त वचन सुनकर धुरन्धर परिवार को महान् आश्चर्य हुआ । उन्होंने अपनी यात्रा के सम्बन्ध में किसी को भी इसकी पहले से सूचना न दी थी । सभी ने आकर उन्हें प्रणाम किया और बैठकर वार्तालाप करने लगे । बाबा ने अन्य लोगों को बतलाया कि ये मेरे दरबारीगण है, जिनके सम्बन्ध में मैंने तुमसे पहले कहा था । फिर धुरन्धर भ्राताओं से बोले कि मेरा और तुम्हारा परिचय 60 जन्म पुराना है । सभी नम्र और सभ्य थे, इसलिये वे सब हाथ जोड़े हुए बैठे-बैठे बाबा की ओर निहारते रहे । उनमें सब प्रकार के सात्विक भाव जैसे अश्रुपात, रोमांच तथा कण्ठावरोध आदि जागृत होने लगे और सबको बड़ी प्रसननता हुई । इसके पश्चात वे सब अपने निवासस्थान पर भोजन को गये और भोजन तथा थोड़ा विश्राम लेकर पुनः मसजिद में आकर बाबा के पांव दबाने लगे । इस समय बाबा चिलम पी रहे थे । उन्होंने बालाराम को भी चिलम देकर एक फूँक लगाने का आग्रह किया । यघपि अभी तक उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया था, फिर भी चिलम हाथ में लेकर बड़ी कठिनाई से उन्होंने एक फूँक लगाई और आदरपूर्वक बाबा को लौटा दी । बालाराम के लिये तो यह अनमोल घडी थी । वे 6 वर्षों से श्वास-रोग से पीड़ित थे, पर चिलम पीते ही वे रोगमुक्त हो गये । उन्हें फिर कभी यह कष्ट न हुआ । 6 वर्षों के पश्चात उन्हें एक दिन पुनः श्वास रोग का दौरा पड़ा । यह वही महापुण्यशाली दिन था, जब कि बाबा ने महासमाधि ली । वे गुरुवार के दिन शिरडी आये थे । भाग्यवश उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी उत्सव देखने का अवसर मिल गया । आरती के समय बालाराम को चावड़ी में बाबा का मुखमंडल भगवान पंडुरंग सरीखा दिखाई पड़ा । दूसरे दिन कांकड़ आरती के समय उन्हें बाबा के मुखमंडल की प्रभा अपने परम इष्ट भगवान पांडुरंग के सदृश ही पुनः दिखाई दी ।

श्री बालाराम धुरन्धर ने मराठी में महाराष्ट्र के महान सन्त तुकाराम का जीवन चरित्र लिखा है, परन्तु खेद है कि पुस्तक प्रकाशित होने तक वे जीवित न रह सके । उनके बन्धुओं ने इस पुस्तक को सन् 1928 में प्रकाशित कराया । इस पुस्तक के प्रारम्भ में पृष्ठ 6 पर उनकी जीवनी से सम्बन्धित एक परिक्षेपक में उनकी शिरडी यात्रा का पूरा वर्णन है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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अध्याय 51 - उपसंहार


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अध्याय – 51 पूर्ण हो चुका है और अब अन्तिम अध्याय (मूल ग्रन्थ का 52 वां अध्याय) लिखा जा रहा है और उसी प्रकार सूची लिखने का वचन दिया है, जिस प्रकार की अन्य मराठी धार्मिक काव्यग्रन्थों में विषय की सूची अन्त में लिखी जाती है । अभाग्यवश हेमाडपंत के कागजपत्रों की छानबीन करने पर भी वह सूची प्राप्त न हो सकी । तब बाब के एक योग्य तथा धार्मि भक्त ठाणे के अवकाशप्राप्त मामलतदार श्री. बी. व्ही. देव ने उसे रचकर प्रस्तुत किया । पुस्तक के प्रारम्भ में ही विषयसूची देने तथा प्रत्येक अध्याय में विषय का संकेत शीर्षक स्वरुप लिखना ही आधुनिक प्रथा है, इसलिये यहाँ अनुक्रमाणिका नहीं दी जा रही है । अतः इस अध्याय को उपसंहार समझना ही उपयुक्त होगा । अभाग्यवश हेमा़डपंत उस समय तक जीवित न रहे कि वे अपने लिखे हुए इस अध्याय की प्रति में संशोधन करके उसे छपने योग्य बनाते ।


श्री सदगुरु साई की महानता

हे साई, मैं आपकी चरण वन्दना कर आपसे शरण की याचना करता हूँ, क्योकि आप ही इस अखिल विश्व के एकमात्र आधार है । यदि ऐसी ही धारणा लेकर हम उनका भजन-पूजन करें तो यह निश्चित है कि हमारी समस्त इच्छाएं शीघ्र ही पूर्ण होंगी और हमें अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी । आज निन्दित विचारों के तट पर माया-मोह के झंझावात से धैर्य रुपी वृक्ष की जड़ें उखड़ गई है । अहंकार रुपी वायु की प्रबलता से हृदय रुपी समुद्र में तूफान उठ खड़ा हुआ है, जिसमें क्रोध और घृणा रुपी घड़ियाल तैरते है और अहंभाव एवं सन्देह रुपी नाना संकल्प-विकल्पों की संतत भँवरों में निन्दा, घृणा और ईर्ष्या रुपी अगणित मछलियाँ विहार कर रही है । यघपि यह समुद्र इतना भयानक है तो भी हमारे सदगुरु साई महाराज उसमें अगस्त्य स्वरुप ही है । इसलिये भक्तों को किंचितमात्र भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । हमारे सदगुरु तो जहाज है और वे हमें कुशलतापूर्वक इस भयानक भव-समुद्र से पार उतार देंगे ।


प्रार्थना

श्री सच्चिदानंद साई महाराज को साष्टांग नमस्कार करके उनके चरण पकड़ कर हम सब भक्तों के कल्याणार्थ उनसे प्रार्थना करते है कि हे साई । हमारे मन की चंचलता और वासनाओं को दूर करो । हे प्रभु । तुम्हारे श्रीचरणों के अतिरिक्त हममें किसी अन्य वस्तु की लालसा न रहे । तुम्हारा यह चरित्र घर-घर पहुँचे और इसका नित्य पठन-पाठन हो और जो भक्त इसका प्रेमपूर्वक अध्ययन करें, उनके समस्त संकट दूर हो ।


फलश्रुति (अध्ययन का पुरस्कार)

अब इस पुस्तक के अध्ययन से प्राप्त होने वाले फल के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिखूँगा । इस ग्रन्थ के पठन-पठन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी । पवित्र गोदावरी नदी में स्नान कर, शिरडी के समाधि मन्दिर में श्री साईबाबा की समाधि के दर्शन कर लेने के पश्चात इस ग्रन्थ का पठन-पाठन या श्रवण प्रारम्भ करोगे तो तुम्हारी तिगुनी आपत्तियाँ भी दूर हो जायेंगी । समय-समय पर श्री साईबाबा की कथा-वार्ता करते रहने से तुम्हें आध्यात्मिक जगत् के प्रति अज्ञात रुप से अभिरुचि हो जायेगी और यदि तुम इस प्रकार नियम तथा प्रेमपूर्वक अभ्यास करते रहे तो तुम्हारे समस्त पाप अवश्य नष्ट हो जायेंगें । यदि सचमुच ही तुम आवागमन से मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें साई कथाओं का नित्य पठन-पाठन, स्मरण और उनके चरणों में प्रगाढ़ प्रीति रखनी चाहिये । साई कथारुपी समुद्र का मंथन कर ुसमें से प्राप्त रत्नों का दूसरों को वितरण करो, जिससे तुम्हें नित्य नूतन आनन्द का अनुभव होगा और श्रोतागण अधःपतन से बच जायेंगे । यदि भक्तगण अनन्य भाव से उनकी शरण आयें तो उनका ममत्व नष्ट होकर बाबा से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी, जैसे कि नदी समुद्र में मिल जाती है । यदि तुम तीन अवस्थाओं (अर्थात्- जागृति, स्वप्न और निद्रा) में से किसी एक में भी साई-चिन्तन में लीन हो जाओ तो तुम्हारा सांसारिक चक्र से छुटकारा हो जायेगा । स्नान कर प्रेम और श्रद्घयुक्त होकर जो इस ग्रन्थ का एक सप्ताह में पठन समाप्त करेंगे, उनके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे या जो इसका नित्य पठन या श्रवण करेंगे, उन्हें सब भयों से तुरन्त छुटकारा मिल जायेगा । इसके अध्ययन से हर एक को अपनी श्रद्घा और भक्ति के अनुसार फल मिलेगा । परन्तु इन दोनों के अभाव में किसी भी फल की प्राप्ति होना संभव नहीं है । यदि तुम इस ग्रन्थ का आदरपूर्वक पठन करोगे तो श्री साई प्रसन्न होकर तुम्हें अज्ञान और दरिद्रता के पाश से मुक्त कर, ज्ञान, धन और समृद्घि प्रदान करेंगे । यदि एकाग्रचित होकर नित्य एक अध्याय ही पढ़ोगे तो तुम्हें अपरिमित सुख की प्राप्ति होगी । इस ग्रन्थ को अपने घर पर गुरु-पूर्णिमा, गोकुल अष्टमी, रामनवमी, विजयादशमी और दीपावली के दिन अवश्य पढ़ना चाहिये । यदि ध्यानपूर्वक तुम केवल इसी ग्रन्थ का अध्ययन करते रहोगे तो तुम्हें सुख और सन्तोष प्राप्त होगा और सदैव श्री साई चरणारविंदो का स्मरण बना रहेगा और इस प्रकार तुम भवसागर से सहज ही पार हो जाओगे । इसके अध्ययन से रोगियों को स्वास्थ्य, निर्धनों को धन, दुःखित और पीड़ितों को सम्पन्नता मिलेगी तथा मन के समस्त विकार दूर होकर मानसिक शान्ति प्राप्त होगी ।

मेरे प्रिय भक्त और श्रोतागण । आपको प्रणाम करते हुए मेरा आपसे एक विशेष निवेदन है कि जिनकी कथा आपने इतने दिनों और महीनों से सुनी है, उनके कलिमलहारी और मनोहर चरणों को कभी विस्मृत न होने दें । जिस उत्साह, श्रद्गा और लगन के साथ आप इन कथाओं का पठन या श्रवण करेंगे, श्री साईबाबा वैसे ही सेवा करने की बुद्घि हमें प्रदान करेंगे । लेखक और पाठक इस कार्य में परस्पर सहयोग देकर सुखी होवें ।


प्रसाद-याचना

अन्त में हम इस पुस्तक को समाप्त करते हुए सर्वशक्तिमान परमात्मा से निम्नलिखित कृपा या प्रसादयाचना करते है –

हे ईश्वर । पाठकों और भक्तों को श्री साई-चरणों में पूर्ण और अनन्य भक्ति दो । श्री साई का मनोहर स्वरुप ही उनकी आँखों में सदा बसा रहे और वे समस्त प्राणियों में देवाधिदेव साई भगवान् का ही दर्शन करें । एवमस्तु ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

सप्ताह परायणः सप्तम विश्राम

।। ऊँ श्री साई यशःकाय शिरडीवासिने नमः ।।

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